बुधवार, 4 नवंबर 2020

श्रम का महत्व

                        श्रम का महत्व
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा,
जो जस करहिं तो तस फल चाखा।
यह संसार वास्तव में एक कर्मभूमि है। भगवान कृष्ण ने भी भगवत गीता में 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' कहकर कर्म करने का संदेश दिया है।
प्रकृति भी हमें कर्म करने की प्रेरणा देती है। धरती,सूरज, तारे, नक्षत्र सभी निरंतर गतिशील है। पवन निरंतर बहती है। नदिया सतत प्रवाहित होती रहती है।
प्रकृति में प्रत्येक तत्व को जीवन के लिए निरंतर संघर्ष करना पड़ता है। नन्हीं सी चींटी भी परिश्रम करके भोजन का भंडार जमा कर लेती है। शेर के मुख में भी पशु स्वयं प्रवेश नहीं कर पाते, उसे परिश्रम करके अपना शिकार ढूंढना पड़ता है।
श्रम से ही जीवन की गाड़ी चलती है। किसान के श्रम से ही सब का पेट भरता है। मजदूरों के श्रम से ही कल - कारखाने चलते हैं। चालकों के श्रम से ही वाहन चलते हैं। अस्पतालों में डॉक्टर और नर्सों का परिश्रम ही मरीजों को नया जीवन देता है। विद्यार्थी भी श्रम करके ही विद्या और योग्यता प्राप्त करते हैं।  श्रम में लीन रहकर ही वैज्ञानिक नए-नए आविष्कार करते हैं।
श्रम के बल पर ही विज्ञान ने मनुष्य को चांद पर पहुंचाया है। सभ्यता और संस्कृति का विकास श्रम के बल पर ही संभव हुआ है। अमेरिका, रूस,जापान जैसे देश अपने परिश्रम के कारण ही विश्व में सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर सके हैं।
वाल्मीकि, वेदव्यास, कालिदास, पाणिनी आदि भी बौद्धिक श्रम से ही महान ग्रंथकार बन सके।पंडित जवाहरलाल नेहरू, श्री लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी जैसे कई नेता अपने श्रम के कारण ही देश के प्रधानमंत्री बन सके। आइंस्टाइन ने श्रम किया और वे विश्व के सबसे महान वैज्ञानिक बन गए। किसी ने सच ही कहा है - "बिना मेहनत के सिर्फ झाड़ियां ही उगती है। "
कल्पना से ही सब कार्य सिद्ध नहीं हो जाते। उसके लिए हमें श्रम करना पड़ता है।अत: श्रम का मानव जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। श्रम से ही हमें धन और यश की प्राप्ति होती है। श्रम से ही शारीरिक, मानसिक और आत्मिक विकास होता है। दिन रात मेहनत करने वाले व्यक्ति के स्वास्थ्य और सौंदर्य की वृद्धि होती है।वह निरोगी होकर दीर्घायु को प्राप्त करता है। परिश्रमी व्यक्ति अपने कर्म में लीन रहकर शांति अनुभव करता है। उसमें आत्म संतोष, आत्मवश्वास और आत्मनिर्भरता के गुणों का विकास होता है। जिससे हीनता की भावना समाप्त हो जाती है और वह आत्म गौरव अनुभव करता है।
हर 2 मिनट की शोहरत के पीछे आठ-दस घंटे की कड़ी मेहनत होती है।
धन जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता है। वह धन भी शारीरिक एवं बौद्धिक श्रम से ही प्राप्त किया जा सकता है।
मनुष्य अपने भाग्य का विधाता स्वयं है। परिश्रम के बल पर ही वह महान से महान लक्ष्य को प्राप्त करके महानता के पथ पर अग्रसर होता चला जाता है। आलसी व कर्म हीन व्यक्ति भाग्य के सहारे बैठा देव- देव पुकारा करता है।
सकल पदारथ है जग माही,
कर्म हीन नर पावत नाही
यह दुख की बात है कि हमारी वर्तमान शिक्षा नीति हमें श्रम से दूर ले जा रही है। आज का युवा वर्ग कम से कम श्रम करके अधिक से अधिक धन कमाना चाहता है। कई बार इसके लिए वह गलत रास्ते भी अख्तियार कर लेता है। जो सचमुच ही हमारे लिए चिंता का विषय है। आज सभी को यह समझने की जरूरत है कि परिश्रम वह चाबी है ,जो किस्मत के दरवाजे खोल देती है। इसलिए परिश्रम करने कीी आवश्यकता है।
परिश्रम वह पारस मणि है, जिसके स्पर्श से लोहा भी सोना बन जाता है।
जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता पूरे जन्म के श्रम द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। इससे कम मूल्य पर इसे खरीदा नहीं जा सकता। जीवन में सफलता के फूल श्रम के पौधे पर ही खिलते हैं।
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः। न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।।
                                           राजेश्री गुप्ता

  

मंगलवार, 3 नवंबर 2020

पेड़

पेड़
आज इस वृक्ष के नीचे बैठकर यह खयाल आया
आज इस वृक्ष के नीचे बैठकर यह ख्याल आया
मेरे पूर्वजों ने इसे न लगाया होता
तो क्या होता ?
इस पेड़ की ठंडी छाया मुझे नहीं मिलती
इस पेड़ के मीठे फल मुझे नहीं मिलते
इस पेड़ से जो अपनापन है
वह मेरे पूर्वजों का आशीर्वाद है
यह पेड़ स्नेह, प्रेम, प्यार से
महकता है
चहकता है
इसको देख कर मैं भी
खुश होती हूं
सोचती हूं
मैं भी एक पेड़ लगाऊंगी
शायद मेरी आगे आनेवाली
कई पीढ़ियां
ऐसा ही लगाव
ऐसा ही अपनापन
पेड़ से महसूस करे
और तब शायद
आज का यह अपनापन
मेरे मन में
पेड़ के प्रति अपनत्व को
दूना कर देता है।
                         राजेश्री गुप्ता

रविवार, 25 अक्तूबर 2020

दशहरा

                         दशहरा

दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के दश - हर से हुई है। जिसका शाब्दिक अर्थ है 10 बुराइयों से छुटकारा पाना।
दशहरे का त्यौहार हमारे भारतवर्ष में बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है। विजय का प्रतीक दशहरा अपना एक खास महत्व रखता है।
दशहरे का त्यौहार अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को मनाया जाता है। इसे आयुध पूजा या विजयादशमी के नाम से भी जाना जाता है।
दशहरा शक्ति की उपासना का पर्व है। 9 दिन देवी दुर्गा की पूजा अर्चना की जाती है। दुर्गा सप्तशती का घर-घर में पाठ होता है। मां देवी दुर्गा के अलग-अलग रूपों की पूजा इन 9 दिनों में की जाती है। हवन आदि के द्वारा मां देवी दुर्गा को प्रसन्न किया जाता है। कहते हैं दशहरे के दिन मां देवी दुर्गा ने महिषासुर का वध किया था। इसीलिए दशहरे का त्यौहार बड़े उल्लास के साथ मनाया जाता है। इसके अलावा पौराणिक ग्रंथों के अनुसार इसी दिन श्री राम जी ने  राक्षस रावण का वध किया था। माता सीता को मुक्त कराया था। इसी कारण दशहरे का त्यौहार बहुत मान्यता रखता है। जगह-जगह इसी दिन रावण का पुतला जलाया जाता है। रावण के साथ- साथ मेघनाथ एवं कुंभकरण का पुतला भी जलाया जाता है।
शक्ति की उपासना का पर्व
दशहरा है धार्मिक त्योहार।
बंगाल में दुर्गा पूजा उत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। जगह- जगह पंडालों में दुर्गा की बड़ी-बड़ी मूर्तियां स्थापित की जाती है। विधि विधान से उनका पूजन किया जाता है।
कई जगहों पर दशहरे के अवसर पर मेले भी लगते हैं। मेले में मां देवी दुर्गा के मंदिर के बाहर का वातावरण देखते ही बनता है। इस समय धार्मिक भावना एवं लोगों की आस्था चरम पर होती है।
दशहरे के समय वर्षा समाप्त हो चुकी होती है। नदियों में बहने वाला पानी अपनी गति से बहता है। कृषक लोगों के लिए भी यह समय धान आदि को सहेज कर रखने का होता है।
इस समय कई लोग अपने शस्त्रों की पूजा करते हैं। वाहन की पूजा करना भी श्रेयस्कर माना जाता है। घरों के बाहर फूलों से तथा आम के पत्तों या अशोक के पत्तों से तोरण बनाकर लगाया जाता है। इस समय घर के बाहर धान का तोरण बनाकर भी लगाया जाता है। कहते हैं इससे घर में हमेशा धनधान्य की समृद्धि होती रहती है।
दशहरे के दिन कई लोग नवीन वाहन, घर या नई चीजें खरीदते हैं। दशहरे का दिन नवीन सौदा करने का दिन होता है। इसे विजय स्वरूप देखा जाता है अतः यह मान्यता है कि इस दिन किया जाने वाला हर कार्य जय देता है।
वास्तव में दशहरा प्रतीक है-
बुराई पर अच्छाई का
असत्य पर सत्य का
नाश पर जय का
अशुभ पर शुभता का
अंधकार पर प्रकाश का
आवश्यकता है हमारे भीतर जो काम, क्रोध, मोह, ईर्ष्या, लालच, मत्सर आदि अनेकों असत भावनाओं का त्याग करने की। जब नकारात्मक भावनाओं को समाप्त किया जाएगा, तब भीतर का रावण अपने आप ही समाप्त हो जाएगा।
अपने भीतर के रावण को जलाएं,
आओ हम दशहरा मनाएं।

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2020

मीडिया और समाज

           मीडिया और समाज
मीडिया अर्थात माध्यम।
अर्थात समाज में, देश में, संसार में कहीं कुछ भी हो रहा है तो वह हमें मीडिया के माध्यम से पता चलता है। चाहे सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या हो, विश्व में कोरोनावायरस हो, बेहाल अर्थव्यवस्था हो या और भी कुछ।
मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका इन तीनों के बाद मीडिया अब एक महत्वपूर्ण स्तंभ के रूप में नजर आती है।
आधुनिक युग में मीडिया का सामान्य अर्थ समाचार पत्र, पत्रिकाओं, टेलीविजन, रेडियो, इंटरनेट, इलेक्ट्रॉनिक्स माध्यम , प्रिंटिंग प्रेस आदि से लिया जाता है। देश को आगे बढ़ाने में, विकास के मार्ग पर ले जाने में मीडिया का बड़ा भारी योगदान होता है।
मीडिया अगर सकारात्मक भूमिका अदा करें तो किसी भी व्यक्ति, संस्था, समूह और देश को आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक रूप से समृद्ध बनाया जा सकता है।
मीडिया समाज के विभिन्न वर्गों सत्ता केंद्रों, व्यक्तियों और संस्थाओं के बीच पुल का कार्य करता है। आज जब इसकी उपयोगिता, महत्व एवं भूमिका निरंतर बढ़ती जा रही है ऐसे में इनकी समाज के प्रति जवाबदेही को नकारा नहीं जा सकता।
किंतु दुर्भाग्य है कि अंग्रेजों के शासन काल में जिस प्रिंट मीडिया ने लोगों में जन जागृति फैलाई, चेतना जगाई, अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाने के लिए विवश किया। वही आज अपने कर्म से विमुख होता जा रहा है।
केवल मनोरंजन ही न कवि का ,
कर्म होना चाहिए।
उसमें उचित उपदेश का भी, 
मर्म होना चाहिए।
बढ़ती टीआरपी के लिए मीडिया केवल सनसनी फैलाने का एकमात्र स्त्रोत बन कर रह गई है। अब तो सही खबरें पहुंचाना लक्ष्य ना होकर, चटपटी मसालेदार खबरें पहुंचाना इनका लक्ष्य बनकर रह गया है। पहले समाचार समाज को सही और सटीक सूचनाएं उपलब्ध करके देते थे। किंतु अब सनसनी फैलाना इनका उद्देश्य हो गया है। यही कारण है कि बरसात की वजह से यदि बाढ़ जैसी परिस्थिति उत्पन्न न हो गई हो तो भी पुरानी तस्वीरें, वीडियो आदि दिखाकर जनता को दिग्भ्रमित करते हैं। इसलिए जनता का भी विश्वास इन पर से अब उठने लगा है।
लोग संगमरमर हुए,
ह्रदय हुए इस्पात,
बर्फ हुई संवेदना,
खत्म हुई सब बात।
मीडिया को, समाज को, गुमराह न करके अपने उत्तरदायित्व को समझना होगा। अपनी जिम्मेदारी का वहन करना होगा।
जलते दीपक के प्रकाश में,
अपना जीवन- तिमिर हटाए।
ऐसा नहीं है कि मीडिया द्वारा जन जागृति का कार्य नहीं किया जाता। पोलियो के लिए दो बूंद जैसे कई कार्यक्रम दिखाए जाते हैं। ऐड्स, टीबी जैसे कई रोगों के प्रति भी जागरूकता फैलाई जाती है। वोट डालना, बाल मजदूरी पर रोक, धूम्रपान के खतरों से अवगत कराना आदि कार्य मीडिया द्वारा सफलतापूर्वक किया जाता है।
भ्रष्टाचारियों पर कड़ी नजर रख, स्टिंग ऑपरेशन करके सच को जनता के सामने लाया जाता है। कई प्रकार के भ्रष्टाचार केवल मीडिया के वजह से आम जनता के सामने आए हैं।

मीडिया एक समग्र तंत्र है। इस तंत्र में अपारशक्ति है।
इस शक्ति का यदि सही उपयोग किया जाए तो समाज कल्याण के मार्ग पर अग्रसर होगा।
 शक्ति का है स्त्रोत मीडिया,
अपने स्वार्थ को तज कर,
समाज का उद्धार कर,
अपने देश का नाम कर।।




रविवार, 13 सितंबर 2020

हिंदी

हिंदी

मैं हिंद की वासी हूं, हिंदी मेरी भाषा है।
हिंदी की महिमा मैं क्या कहूं,
एक सरिता सी व्याख्या है।
जहां जाए, वहां राह बनाएं,
सबके ह्रदय को पुलकाये,
जन जन के ह्रदय में बसती,
ऐसी यह एक अभिलाषा है।
मैं हिंद की वासी हूं, हिंदी मेरी भाषा है।
हिंदी का अनुराग मुझे है,
इसकी छवि से प्यार मुझे है।
इसका बढ़ता गौरव,
संपूर्ण विश्व में छाया है।
हर प्रांत, हर देश की,
सबसे शीतल छाया है।
मैं हिंद की वासी हूं, हिंदी मेरी भाषा है।
जिसने इसको गले लगाया,
उसने जीवन में नाम कमाया।
भारतेंदु जी ने, नया रूप दिया इसे,
द्विवेदी जी ने परिष्कृत किया इसे,
शुक्ल, प्रसाद के हाथों गढ़ कर,
जीवन एक नवीन हुआ।
मै हिंद की वासी हूं, हिंदी मेरी भाषा है।
प्रेमचंद, निराला, महादेवी,
किसकी यहां मैं बात करूं।
हिंदी साहित्य अनमोल धरोहर,
माणिक मोती चुने हुए।
सूक्ष्म स्त्रोत फूट कर यहां,
विस्तृत जलधारा बना।
मैं हिंद की वासी हूं, हिंदी मेरी भाषा है।
गांधी, टैगोर ने अपनाकर इसे,
जन-जन में, नवशक्ति, नवप्राण भरा।
नेहरू, सुभाष और भगत सिंह
के भी सर का ताज बना।
देश की आजादी में भी,
हिंदी हिंद की जान बनी।
मैं हिंद की वासी हूं, हिंदी मेरी भाषा है।
चाहे कोई जाति,प्रांत हो।
या हो कोई भाषी भी।
सब ने इसे अपनाकर कर ली,
अपने सर की ताजपोशी भी।
मैं हिंद की वासी हूं, हिंदी मेरी भाषा है।
हिंदी ने करामात दिखाई,
हिंदुस्तान आजाद हुआ।
एकता, अखंडता का नारा,
हिंदी ही के साथ हुआ।


मैं हिंद की वासी हूं, हिंदी मेरी भाषा है।
बीते दिन, बीता वर्ष,
आज भी हिंदी मुकम्मल है।
दिल से दिल को समझने के लिए,
आज भी हमारे पास तो यही संबल है।
मैं हिंद की वासी हूं, हिंदी मेरी भाषा है।
कभी-कभी भूल जाते हैं इसे,
भाषावाद की जड़ में,
किंतु ज्येष्ठ कन्या- सी,
सागर सा, ह्रदय लिए,
आज भी मौजूद है हिंदी।
हम सबके बीच है हिंदी।
मैं हिंद की वासी हूं, हिंदी मेरी भाषा है।
भूखे फकीर से लेकर,
रेड कार्पेट पर चलने वालों तक।
अपनाती है यह, गले लगाती है यह,
प्यार से सबको, अपना बनाती है यह।
यह हिंद की भाषा है।
यह हिंद की भाषा है।
हिंदी ही मेरी भाषा है।
हिंदी ही मेरी भाषा है।
                           राजेश्री गुप्ता 





सोमवार, 17 अगस्त 2020

प्रेम

प्रेम

प्रेम दो वर्णों का लफ्ज है।
इसमें छिपा बड़ा रोचक मर्म है।
प्रेम से प्रेम को पाया जा सकता है।
प्रेम से दुनिया को अपना बनाया जा सकता है।
प्रेम ने मेरी दुनिया ही बदल दी,
जब से प्रेम हुआ मुझे,
सब मुश्किल ही हल कर दी।
हिंदू ,मुस्लिम, सिख , ईसाई
सभी प्यारे लगते हैं।
ना कोई बड़ा, ना कोई छोटा,
ना कोई अमीर ,ना कोई गरीब लगता है।
बस प्यार से देखो तो हर इंसान,
करीब का कोई अपना लगता है।
प्रेम सिखलाता है हमको,
नफरत को भुलाकर व्यक्ति को जीतना।
प्रेम सिखलाता है हमको,
सभी को अपना बनाकर रखना।
ये प्रेम शब्द कितना ताकतवर है।
काश, ये मेरे देश का हर बंदा जान जाए।
तो दूरियों का यह समंदर,
हर एक को कितना,
नजदीक नजर आए।
जाति- पांति की दीवार पाटकर,
हम सब केवल,
प्रेममय हो जाए।
राजेश्री गुप्ता

प्लास्टिक

प्लास्टिक

हमारे दैनिक जीवन में हम प्लास्टिक की काफी सारी वस्तुओं का उपयोग करते हैं। हमारी सुबह से लेकर हमारी रात तक के सारे क्रियाकलापों में हम प्लास्टिक का इस्तेमाल करते हैं। कभी यह नहीं सोचा था कि प्लास्टिक का इस्तेमाल इतना घातक हो जाएगा।
कई साल पहले जब बहुत बारिश हुई और जगह-जगह पानी भर गया। उस पानी का बढ़ता स्तर किसी बाढ़ से कम नहीं था। यह बाढ़ बढ़ती ही जा रही थी। बाद में पता चला प्लास्टिक की वजह से पानी जाने का स्त्रोत बंद हो गया है, जिससे बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो गई।
मतलब प्लास्टिक की वजह से बाढ़ का प्रकोप पूरे शहर को झेलना पड़ा।
प्लास्टिक एक ऐसा पदार्थ है जिसे अमर होने का वरदान प्राप्त हो गया है। मानो जब विष्णु जी देवों के अमर होने के लिए समुद्र मंथन के बाद जो अमृत बांट रहे थे वह प्लास्टिक को मिल गया हो। इसीलिए तो उसे समाप्त नहीं किया जा सकता। वजन में हल्का, कभी जमुना लगने वाला, कीमत भी कम ऐसी वस्तु कोई क्यों न ले?
प्लास्टिक है धीमा जहर,
प्रतिदिन पृथ्वी को मार रहा,
 फैलता जा रहा है प्रकृति में,
 आसमान से समुद्र  तक ,
सभी को बर्बाद कर रहा।
प्लास्टिक एक ऐसा पदार्थ है जिसके कारण जल,मृदा, और वायु के प्रदूषण होते हैं। यह मानव जीवन के लिए भी हानिकारक है। यह ऐसा जानलेवा पदार्थ है जो प्रकृति को जड़ से हटाने की क्षमता रखता है।
इसका उपयोग बहुत सुलभ है। हमारे दैनिक जीवन में बड़ी सरलता से इसका उपयोग सभी कर रहे हैं। कम खर्च में, काम हो रहा है, तो अच्छा है। बचत तो हो रही है। पर यह आज की बचत कल पर कितनी नुकसानदायक है यह हम नहीं जानते।
कुछ लोग अपना सारा कूड़ा इन्हीं प्लास्टिक की थैलियों में भर कर सकते हैं उनके लिए कूड़ा फेंकना कितना आसान हो गया है। बारिश में हम सभी प्लास्टिक को सिर पर लगाकर बौछारों से सिर को बचाते हैं। प्लास्टिक की पन्नियों से किताबों कॉपियों को भी सुरक्षा देने का काम करते हैं।
पर कभी सोचा नहीं कि यह प्लास्टिक का उपयोग इतना घातक सिद्ध होगा। हम लोग अपने ही हाथों अपनी धरती को नष्ट कर रहे हैं।
सहूलियत को कम करो,
प्लास्टिक का उपयोग बंद करो।
यह नारा कई बार हमने सुना है पर समझते कुछ भी नहीं है।
कहते हैं अमेरिका लगभग 380 टन का प्लास्टिक निर्माण करता है। ऐसे ही प्लास्टिक का निर्माण होता रहा तो अपने आज के फायदे के लिए हम आने वाली पीढ़ी को केवल जहर ही दे रहे हैं।
प्लास्टिक से सिर्फ पर्यावरण ही नहीं पशु पक्षियों को भी खतरा है। अभी कल ही तो सुना कि एक गाय ने रोटी के साथ बंधी प्लास्टिक की थैली भी खाली। बेचारे मुख जानवर प्लास्टिक को खाकर तरह-तरह की बीमारियों को न्योता देते हैं। कुछ तो मर भी जाते हैं। मैं ऐसा सोचती हूं कि यदि गाय बकरियां ऐसे मर जाएंगी तो हमें दूध कहां से मिलेगा।
समुद्र और महासागरों में डाली गई प्लास्टिक की बोतलें, थैलियां आदि पानी को जहरीला बनाती हैं। मछलियां एवं कई जलचर प्राणी पानी के प्रदूषित होने के कारण मर जाते हैं।
वह दिन दूर नहीं जब इसके कारण कई प्रजातियां विलुप्त होती दिखाई देंगी।
पशु- पक्षियों पर गहरा संकट,
मछलियां तड़प कर मर रही,
समुद्र ,नदियां ,तालाबों पर,
प्लास्टिक रूपी गंदगी तैर रही।
प्लास्टिक जमीन की उर्वरा शक्ति को नष्ट करता है। यदि कपड़े या लकड़ी को जमीन में गाड़ दें तो वह नष्ट हो जाता है ।पर प्लास्टिक नहीं। वह तो कई साल बाद भी वैसा के वैसा ही मिलता है। इसका कोई अंत नहीं है। प्लास्टिक में फेनोमल, मिथेनॉल जैसे भिन्न-भिन्न तत्व मिलाए गए हैं। प्लास्टिक में आमतौर पर उच्च आणविक भार होता है जिसका अर्थ है कि प्रत्येक अनु परमाणुओं को वह साथ में बांधे रखता है। प्लास्टिक को रीसायकल नहीं किया जा सकता। तभी तो प्लास्टिक स्वयं कहता है
चीर के जमीन को, मैं प्रदूषण बोता हूं,
मैं प्लास्टिक हूं, मैं जीवन छीन लेता हूं।
प्लास्टिक को जलाने से इसमें से जहरीले पदार्थ निकलते हैं। प्लास्टिक से कैंसर होता है इसलिए तो प्लास्टिक में गर्म व्यंजन नहीं डालना चाहिए या गर्म पेय भी नहीं पीना चाहिए।
प्लास्टिक के प्रदूषण को कम करने के लिए हमें इसका उपयोग बंद करना होगा। प्लास्टिक की जगह स्टील या अन्य दूसरे विकल्पों को इस्तेमाल में लाना होगा। बाजार जाते समय जूट की या कपड़े की थैली का इस्तेमाल किया जा सकता है। प्लास्टिक का इस्तेमाल ना करके हम प्लास्टिक प्रदूषण को काफी हद तक कम कर सकते हैं।
सरकार भी जागरूकता फैलाकर, प्लास्टिक के उत्पादन पर नियंत्रण लगाकर, प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाकर प्लास्टिक के प्रदूषण को कम कर सकती है।
आइए हम सभी मिलकर संकल्प लें ,
प्लास्टिक का उपयोग बंद करें।


शनिवार, 15 अगस्त 2020

स्वतंत्रता दिवस

स्वतंत्रता दिवस

तम से पर्दा छटा, रवि की रश्मियों ने संपूर्ण चेतना को प्रफुल्लित कर दिया। गुलामी की जंजीरों में जकड़े हुए भारत को बंधहीन कर दिया। तो ऐसा दिन भारत के इतिहास में अमर क्यों ना हो?
एक लंबे संघर्ष के बाद गुलामी की लौह श्रृंखलाओं से स्वतंत्र होकर आज हम स्वतंत्र भारत में स्वतंत्र सांसे ले रहे हैं। भारत में प्रगति और विकास की राह पर कई मील के पत्थर तोड़े हैं। अपना संविधान बनाना, तटस्थ विदेशी नीति बनाकर उस पर डटे रहना। शिक्षा, ज्ञान, विज्ञान, तकनीकी, उद्योग- धंधे ,कल- कारखाने सभी का स्वतंत्र भारत में असीम विस्तार हुआ है।
क्या हुआ गर मर गए,
अपने वतन के वास्ते,
बुलबुले भी तो मरती हैं,
अपने चमन के वास्ते।
देश प्रगति कर रहा है, आगे बढ़ रहा है किंतु संकट बार-बार पैरों में बेड़िया पहनाने आ ही जाते हैं ऐसे में जरूरी है कि हमारे देश को बचाने के लिए हम सभी  एक हो जाए। आज राष्ट्र कुछ जयचंदो की वजह से गर्त में डूबता जा रहा है। ये जयचंद सांप्रदायिक वैमनस्यता बढ़ाकर स्वार्थ के अहम में धर्म की दुकानें चला रहे हैं। वोट बैंक के लिए निरीह, मासूम जनता को स्वर्ग का हवाला देकर गुमराह कर रहे हैं। विध्वंसकता, कट्टरता की नींव पर अपने सपनों का महल खड़ा कर रहे हैं जिसकी दीवारें इंसानी खून में रंगी हो।
लेकिन हमें यह याद कर लेना होगा कि ऐसे महल बहुत जल्द ही खंडहर में तब्दील हो जाया करते हैं।


आतंकवाद किसी का दोस्त नहीं होता। इसका कोई मजहब नहीं होता। वह सिर्फ इंसानियत का दुश्मन होता है और इंसानियत तो हर मजहब, हर धर्म में होती है। अतः आज जरूरी है कि हम विदेशी राष्ट्रों से भी कुछ सीख ले।
देश में गरीबी, बेरोजगारी, महंगाई सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही जा रही है, जिसका मूल कारण है,अशिक्षा।
देश को पूर्ण साक्षर बनाने की आवश्यकता है। सिर्फ विद्यार्थियों को परीक्षा प्रणाली से बांधने की बजाए क्यों ना हम शिक्षा के साथ उद्योग धंधों को बढ़ावा देने की बात पर जोर दें। जिससे विद्यार्थी न केवल साक्षर होगा बल्कि वह आत्मनिर्भर व स्वावलंबी भी होगा।
संदेश नहीं मैं यहां स्वर्ग का लाया,
इस पृथ्वी को ही स्वर्ग बनाने आया।


अतः आज का दिन हमें यही संदेश देता है कि हममें सच्चा प्रेम हो, त्याग हो, दया हो, सहानुभूति हो और हो कर्तव्य की भावना। आज का दिन ज्ञान की पावन ज्योति जगाने के व्रत लेने का है। स्वतंत्रता देवी के स्वागत में जगमगाते दीपक ओं के प्रकाश में अपने ह्रदय के अंधकार को धोकर भारत के कण-कण में कल्याण एवं शांति की हिलोर उठा देने का है जिससे सभी भारतवासी यथार्थ सुख का अनुभव करें। तभी नेहरू और गांधी जी का स्वप्न चरितार्थ होगा। वसुधैव कुटुंबकम हमारा जो धेय है वह पूर्ण होगा।
जो भरा नहीं है भावों से,
बहती जिसमें रसधार नहीं,
वह हृदय नहीं, वह पत्थर है,
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।
राजेश्री गुप्ता

शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

श्री कृष्ण लीला

श्री कृष्ण लीला

बड़ा नटखट है रे, कृष्ण कन्हैया,
का करे यशोदा मैया।
नटखट, शरारती, माखन- चोर,रास -रसैया आदि ऐसे अनेकों नाम कृष्ण को याद करते ही हमारे जहन में उतर जाते हैं। मुरली बजैया कान्हा की बाल लीलाओं का वर्णन सूरदास ने बड़े ही मनोहारी ढंग से किया है।
मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो येे पद हो या मैया मोहे दाऊ बहुत खिझायो ये पद हो।
हर जगह कान्हा की बाल लीलाओं का वर्णन सजीव रूप में चित्रित मिलता है।
श्री कृष्ण ने देवकी और वसुदेव की आठवीं संतान के रूप में जन्म लिया। उनके जन्म लेने के समय कंस ने वासुदेव और देवकी को कारागृह में बंद किया था। श्री कृष्ण के जन्म लेते ही कंस के सारे पहरेदार सो गए। कारागृह के दरवाजे खुल गए। वसुदेव ने कृष्ण को एक टोकरी में रखकर नंद के घर ले गए। रास्ते में खूब बरसात हो रही थी। यमुना का पानी ऊपर बढ़ता ही जा रहा था मानो यमुना भी श्री कृष्ण का दर्शन करने को व्याकुल हो रही थी। यह कृष्ण का ही चमत्कार था कि उनके पैर का स्पर्श होते ही यमुना का पानी कम हो गया। वसुदेव ने कृष्ण को सही सलामत नंद के घर गोकुल में छोड़ दिया और वापस कारागृह में लौट आए।
यहां पर जैसे ही नंद की कन्या को अपना काल मानकर कंस ने मारना चाहा वह हाथ से छूटकर आसमान में लुप्त हो गई। योग माया के लुप्त होते ही आकाशवाणी हुई की कंस को मारने वाला गोकुल में पैदा हो चुका है। कंस को यह पता चलते ही कंस ने श्री कृष्ण को मारने के लिए एक के बाद एक साजिश रचनी शुरू कर दी।
पूतना नामक राक्षसिन को कंस ने कृष्ण को मारने के लिए भेजा। पूतना ने एक सुंदर स्त्री का रूप धरा और वह श्रीकृष्ण से खेलने के बहाने उसके घर गई। पूतना के स्तन में विष था। उसने जैसे ही कृष्ण को स्तनपान कराया। वैसे ही पूतना के प्राण छूट गए। कृष्ण ने खेल ही खेल में पूतना के प्राण हर लिए।
अपने मित्रों के संग गेंद से खेलते वक्त गेंद यमुना नदी में चली गई। वहां कालिया नाग ने डेरा जमा रखा था। कृष्ण पानी में कूदे और कालिया नाग को परास्त कर उसके फन के ऊपर बैठकर गेंद लेकर ऊपर आए।
यहां कंस ने भी हार नहीं मानी। वह एक के बाद दूसरे को कृष्ण का वध करने के लिए भेज ही देता था। कृष्ण उन असुरों को मारकर उनका उद्धार कर देते।
अघासुर, बकासुर ,तृणावत और न जाने कितने राक्षसों का वध कर कृष्ण ने उनका उद्धार किया। धरती को पापियों से मुक्त कर दिया।
यहीं पर कृष्ण की बाल लीलाओं का अंत नहीं होता। माखन चुराना, गैया चराना, रास रचाना, मुरली बजाना आदि अनेक लीलाओं के द्वारा कान्हा ने गोकुल के लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया। आज संपूर्ण जगत हरे रामा हरे कृष्णा की माला जप रहा है।
उनकी एक लीला जो बहुत प्रसिद्ध है वह है उनका मिट्टी खाना। एक बार यशोदा मां ने कृष्ण को मिट्टी खाने पर उन्हें मुंह खोलने को कहा। मुंह खोलने पर मां को उसमें संपूर्ण ब्रह्मांड के दर्शन हुए। कहते हैं वह देखकर मां अचेत होकर गिर पड़ी।
इसी प्रकार श्री कृष्ण ने एक बार इंद्र के कोपित हो जाने पर गोवर्धन पर्वत को एक उंगली पर उठाकर संपूर्ण ग्राम वासियों की रक्षा की थी।
गोकुल से दूध दही कंस की नगरी मथुरा में जाता था। श्रीकृष्ण को यह सही नहीं लगता था। वे सोचते यही दूध, दही खाकर यहां के लोग हृष्ठ- पुष्ट रहे इसलिए वे गोपीकाओं की नजरे चुराकर उनके घर से दूध दही उड़ाते। जिससे गोकुल का दूध, दही वहां के लोग ही इस्तेमाल कर सके।
हरि अनंत हरि कथा अनंता
श्री कृष्ण की बाल लीलाओं का अंत नहीं किया जा सकता। मनोहर ,सकल जगत का ताप हरने वाला, विश्व का सृष्टा केवल कृष्ण हीं हो सकता है।
ऐसे श्रीकृष्ण को मेरा शत-शत नमन।
       राजेश्री गुप्ता

गुरुवार, 6 अगस्त 2020

शहरी जीवन

शहरी जीवन
चंदन है इस देश की माटी,
तपोभूमि सब ग्राम है।
कहते हैं-भारत गांवों में निवास करता है। गांव इस देश की रीढ़ की हड्डी है और देश की खुशहाली हमारे गांवों की मुस्कुराहट पर निर्भर है। बेशक यह बात शत- प्रतिशत सच है, परंतु फिर भी गांव के लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। वे अपने गांव छोड़कर शहरों के आकर्षण की ओर खींचें जा रहे हैं।
हां ! हां ! भारत दुर्दशा न देखी जाए।
गांवों की शुद्ध आबोहवा शहरी लोगों को सदैव आकर्षित करती रहती है क्योंकि शहरों में बस, ट्रक, कार, दुपहियों और तिपहियों की इतनी भरमार है कि यहां का वायुमंडल अत्यधिक प्रदूषित हो गया है। शहरों में वायु प्रदूषण के अलावा ध्वनि प्रदूषण भी अत्यधिक है। इसके अतिरिक्त जल प्रदूषण भी है। गंदा पानी पीने के कारण शहर के अधिकांश लोग जल जनित बीमारियों जैसे बुखार, हैजा, दस्त, उल्टी आदि से हमेशा त्रस्त रहते हैं। ध्वनि प्रदूषण से शहरों में अधिकांश लोग बहरे हो गए हैं या कम सुनने लगे हैं और वायु प्रदूषण से लोगों को श्वास संबंधी बीमारियां हो गई हैं। यह सभी बीमारियां इन शहरों की ही देन है। फिर भी शहर में रहने का अपना आकर्षण बना हुआ है।
आज का शहर विचित्र, नवीन
धड़कता है हर पल,
चाहे रात हो या दिन।
शहरी जीवन प्रदूषण से बेहाल है, इसके बावजूद यहां की चमक दमक लोगों को अपनी ओर खींच रही है। यहां जीवन उपयोगी हर वस्तु सहज उपलब्ध हो जाती है। इसके अतिरिक्त शहरों में रोजगार के अवसर अधिक है इसलिए शहरों का अपना अलग ही आकर्षण है। हालांकि यहां पर लोग गांव की करो प्रेम और मेलजोल से नहीं रहते।
लोग संगमरमर हुए ,ह्रदय हुए इस्पात,
बर्फ हुई संवेदना, खत्म हुई सब बात।
जिस प्रकार गांव मे लोग एक-दूसरे की मदद के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। प्रतिदिन सुबह-शाम वे चौपाल पर एक दूसरे के हाल-चाल अवश्य पूछते हैं ,लेकिन शहरों में तो अधिकांशतः लोग अपने पड़ोसी का नाम तक नहीं जानते। सिर्फ अपने मतलब से मतलब रखते हैं ऐसा प्रतीत होता है जैसे सभी अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए वहां रह रहे हैं।
जहां भी जाता हूं ,वीरान नजर आता है ।
खून में डूबा हुआ ,हर मैदान नजर आता है।
हालांकि केंद्र सरकार गांव के उत्थान के लिए वहां पर हर प्रकार की सहूलियत और साधन उपलब्ध कराने के प्रयास कर रही है ,ताकि ग्रामीण लोग शहरों की तरफ पलायन न करें ।परंतु विकास की दर इतनी धीमी है कि अभी गांव में शहरो जैसा विकास होने में बीसीयों वर्ष लग जाएंगे।
गांव से शहर आने वाले लोग शहरों के आकर्षण के कारण यहां खिंचे चले आते हैं। शहरों की चमक दमक उन्हें यहां आने के लिए बाध्य करती है। फिल्म स्टार को देखने, उनकी झलक पाने के लिए, लोग आतुर होकर शहर की ओर चले आते हैं। यहां आकर उन्हें यहां की स्थिति का एहसास होता है। हालांकि शहरों में कोई भूखा नहीं सोता। खाना तो मिल ही जाता है। किंतु सोने के लिए कोई जगह नहीं मिलती। मजबूरन लोगों को फुटपाथ पर सोना पड़ता है। शहरों की दशा यहां की जनसंख्या के कारण बहुत ही खराब है। ट्रेनों में लोगों की भीड़ कम होने का नाम ही नहीं लेती है। इसी भीड़ के कारण कई लोगों को अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ता है।
शहरों में लोगों के पलायन से शहरों की दशा अत्यंत खराब हो गई है। दिल्ली शहर इसमें मुख्य है। यहां जनसंख्या अत्यधिक होने से ट्रैफिक प्रदूषण, बीमारियां आदि बहुत बढ़ रही है। इससे पहले कि यहां की हालत विस्फोटक हो जाए, सरकार को कुछ करना होगा।
यह है शहरी जीवन की दशा अथवा दुनिया। जिसे समय रहते सुधारना होगा।
जलते दीपक के प्रकाश में,
अपना जीवन- तिमिर हटाए,
उसकी ज्योतिर्मयी किरणों से,
अपने मन में ज्योति जगाएं।

खेत

खेत
आज राशन की लाइन में खड़े हुए,
ध्यान दुकान पर था लगा हुआ।
बेचैनी बढ़ रही थी,
धूप तेज और तेज हो रही थी।
माथे पर शिकन गहरा रही थी।
तभी राशन वाले ने कहा,
राशन खत्म हो गया।
आज भी कल की तरह,
खाली हाथ जाना होगा,
बच्चों को आज भी,
भूखा ही सो जाना होगा।
चिंता बेचैनी बढ़ रही थी,
अफसोस गहरा रहा था,
मैंने खेत क्यों बेच दिए,
हाय ! मैंने खेत क्यों बेच दिए।



संघर्ष

संघर्ष

यह शहरी जीवन है,
यांत्रिक गतिविधियां,
जहां तनिक भी विश्राम नहीं।
भीतर संघर्षों का कोलाहल,
बाहर अजीब सी शांति है।
भीतर वेदना प्रगाढ़,
बाहर स्मित मुस्कान है।
कुछ उखड़ा हुआ है,
कुछ टूटा हुआ है,
कुछ दरका हुआ है भीतर।
कुछ क्षण पूर्व था यहां,
विचारों का आतंक,
संघर्षों का कोलाहल,
मानसिक अशांति,
अब बिल्कुल सन्नाटा है।
मौन है, निस्तब्धता है,
संवेदनाओं का एहसास
बर्फ सा हो गया है।
मन तो केवल इस्पात है।

सोमवार, 22 जून 2020

दुनिया

दुनिया


ये दुनिया है,

हर बात पर टोकती है।

बाप गधे पर बैठे,

या बेटा।

इन्हें हर बात में ऐब नजर आता है।

दुनिया का काम ही है,

लोगों पर नजर रखना।

कुछ तो ऐसे शागिर्द है,

डफली खूब बजाते हैं,

राग मधुर गाते हैं,

सबके जीवन में ताका- झांकी करना,

उसका- इससे, इसका- उससे,

बस यही है काम- धंधा।

आता है इन्हें, बहस- बाजी भी करना।

तू- तू, मैं- मैं कर, अपनी जंग जीतना।

किसी को भी नहीं बख्शते,

सभी को अपना पैबंद समझते।

लोग भी इनकी बातों में आ जाते,

ये चाशनी जो है टपकाते।

इनके पास है एक जादुई दूरबीन,

दूर तक देख पाते हैं।

आज तक मेरे जीवन में क्या नहीं हुआ,

यह मैं नहीं समझ पाई।

किंतु यह देख पाते हैं,

देख ही नहीं, समझ भी पाते हैं।

हमदर्दी इनको सभी से खूब होती है।

सोचती हूं, क्या यह नेता बनना चाहते हैं ?

राजनीति करना चाहते हैं ?

तब पता चला,

राजनीति तो सब ओर है।

यह बड़ी राजनीति नहीं करते,

इसलिए छोटी-छोटी करना चाहते हैं।

क्या कहूं इनसे,

कुछ समझ नहीं पाती।

आज तो हर तरफ,

सिर्फ गिद्ध ही देख पाती हूं।

जो मौकापरस्त होते हैं।

जो शव ढूंढते हैं।

ताकि नोच- नोच कर,

उसका ढांचा ही बिगाड़ दे।

दुनिया ऐसी ही है मतलबी, स्वार्थी।

सब अपना स्वार्थ साथ रहे।

ऐसे में कैसे कोई, अपनी व्यथा,

अपनों से कैसे कहें।

                            राजेश्री गुप्ता

शनिवार, 20 जून 2020

गुरु पूर्णिमा

गुरु पूर्णिमा

गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरा,
गुरु साक्षात परब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः।

गुरु पूर्णिमा का पर्व हर वर्ष आषाढ़ माह की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। यह पर्व भारत के पौराणिक इतिहास के महान संत ऋषि वेदव्यास की याद में मनाया जाता है। आज का दिन गुरु के प्रति श्रद्धा एवं समर्पण का पर्व है।

गुरु शब्द का अभिप्राय है अंधेरे से उजाले की ओर ले जाने वाला। गु का अर्थ अंधकार और रू का अर्थ मिटाने वाला। जो अपने सदुपदेशों के माध्यम से शिष्य के अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट कर देता है, वह गुरु है। गुरु सर्वेश्वर का साक्षात्कार करवाकर शिष्य को जन्म- मरण के बंधन से मुक्त कर देता है। अतः संसार में गुरु का स्थान विशेष महत्व का है। रामचरितमानस के आरंभ में गोस्वामी तुलसीदास जी ने गुरु को आदि गुरु सदाशिव का स्थान दिया है।

भोलेनाथ से जब माता पार्वती ने अपनी संतानों के हित के लिए प्रश्न पूछा कि ब्रह्म कौन है ? तब भोलेनाथ ने उत्तर देते हुए कहा गुरु के अतिरिक्त कोई ब्रह्म नहीं है। यही सत्य है।
गुरु शिक्षा प्रणाली के आधार स्तंभ माने जाते हैं। छात्र के शारीरिक एवं मानसिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
गुरु संस्कृति के पोषक है,
वे ही ज्ञान प्रदाता है,
साक्षरता के अग्रदूत,
वे ही राष्ट्र- निर्माता है।
भारतीय संस्कृति की गौरवशाली परंपरा रही है। गुरु रामदास जैसा गुरु, जिसने शिवाजी को छत्रपति शिवाजी बनाया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस जैसा गुरु, जिसने नरेंद्र नाथ को, स्वामी विवेकानंद बनाया। स्वामी बिरजानंद जैसा गुरु, जिसने दयानंद को, महर्षि दयानंद बना दिया।
अतः हम यही कह सकते हैं कि
गुरु- गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविंद दियो बताए।।


विज्ञापन युग

विज्ञापन युग
लाइफ बाॅय है जहां तंदुरुस्ती है वहां,
निरमा निरमा निरमा वाशिंग पाउडर निरमा
थोड़ा सा पाउडर और झाग ढेर सारा आदि।
विज्ञापन दैनिक जीवन में छोटे से लेकर बड़े तक प्रभाव डालने वाला सशक्त माध्यम बन गया है। विज्ञापन के द्वारा विभिन्न कंपनियां अपने-अपने वस्तुओं की खपत बड़ी ही धूमधाम से कर रही है। पहले विज्ञापन टीवी या सिनेमाघरों में स्लाइड्स पर एक सूचना के रूप में दिखाया जाता था। जैसे-जैसे समय बदला विज्ञापन ने भी अपना रूप बदल लिया है। आकर्षक चित्रों के अलावा प्रभावी संवाद शैली व दोनों को मिलाकर विज्ञापन बनाया जाता है। विज्ञापन जितना प्रभावशाली होता है, वस्तु की खपत उतनी ही तेज होती है। विज्ञापन की प्रभावोत्पादकता इतनी है कि हम सर्फ की ललिता जी को कभी भूल ही नहीं सकते और ना ही भूल सकते हैं कि बूस्ट इज द सीक्रेट ऑफ माय एनर्जी।
विज्ञापन ने किया कमाल,
जिंदगी में हमारे भर दी रफ्तार।
सचमुच विज्ञापन छा गया है, हम पर, हमारी सोच पर, हमारी मानसिकता पर और क्यों ना छाए ? हम भी तो विज्ञापन युग में ही जी रहे हैं, सांस ले रहे हैं। विज्ञापन के द्वारा ही हमें पता चलता है कि लाइव बॉय के अलावा भी संतूर, लक्स, डेटॉल,सेवलाॅन आदि और भी साबुन है। वैसे ही टूथपेस्ट या बिस्किट आदि के बारे में भी हमें पता चलता है कि विभिन्न कंपनियों के द्वारा विभिन्न वस्तुएं बाजार में उपलब्ध है। कई बार समाचार पत्रों-पत्रिकाओं मे भी वस्तुओं के विज्ञापन में उसके उत्पादन से संबंधित कई बातें छपी होती है। जिससे आम व्यक्ति को वस्तु के बारे में बहुत सी जानकारी मिल जाती है। इतना ही नहीं कौन- सी वस्तु, किस जगह, कितनी सस्ती मिलेगी, यह बात भी हमें विज्ञापनों के द्वारा पता चलती है। जैसे- बिग बाजार, डी- मार्ट आदि का विज्ञापन।
विज्ञापन ने दुनिया रोशन कर दी,
हर व्यक्ति की मुश्किल आसान कर दी।
विज्ञापन ही हमें बताता है कि कौन- सी ब्रांड की कौन- सी वस्तु सस्ती है और कौन सी महंगी। तब हम अपनी रूचि के आधार पर वस्तुएं खरीद सकते हैं।
विज्ञापन ही बाजार जगत में हलचल पैदा कर देता है। वस्तु की मांग और पूर्ति के संदर्भ में विज्ञापन भी अपनी अहम भूमिका निभाता है।
उत्पादन को बाजार तक लाते हैं विज्ञापन,
उसकी खपत को बढ़ाता है विज्ञापन।
आज विज्ञापन का दौर है। ऐसे में विज्ञापन के द्वारा कई लोग दिशा भ्रमित भी होते हैं। उदाहरण लक्स साबुन का विज्ञापन देखकर कई लड़कियां खुद को ऐश्वर्या या प्रियंका समझने लगती है।गोरेपन की क्रीम का विज्ञापन देखकर लोग उसे खरीदते हैं और खुद को ठगा पाते हैं। विज्ञापन में वस्तुओं की इतनी तारीफ होती है कि ग्राहक सोचता है कि वह क्या खरीदें और क्या ना खरीदे। फल स्वरूप वह भ्रम में होता है।
विज्ञापन की चकाचौंध के, वश में सारा संसार,
भांति भांति के विज्ञापनों से, चलता है संसार।
छोटे बच्चे तो विज्ञापन देखकर उसी वस्तु को खरीदने की जिद करने लगते हैं। विवश माता- पिता वह वस्तु लेने को बेबस हो जाते हैं। टीवी में तो कार्यक्रम कम और विज्ञापन अधिक ही दिखाई देता है शायद इसीलिए हमें कविताएं कम और विज्ञापन ज्यादा याद होने लगते हैं। चर्चित हस्तियों को लेकर विज्ञापन दिखाए जाते हैं जिससे बच्चे ही नहीं बड़े भी यही सोचते हैं कि मेरा पसंदीदा अभिनेता यदि इस ब्रांड की वस्तुएं खरीदता है या उपयोग में लेता है तो मैं भी यही वस्तु का उपयोग करूंगा।
मैं जानती हूं हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। फिर भी आधुनिक जीवन की इस यांत्रिक परिस्थितियों में विज्ञापन जरूरी हो गया है।
विज्ञापन युग की महिमा अपार, 
छोटे से बड़े तक सबको दिया तार।

योग

                       योग
'योगी बनो पवित्र बनो'
भारत की धरती पर बड़े-बड़े ऋषि- मुनि, योगियों ने जन्म लिया है और हमें ज्ञान की ऐसी संपदा विरासत में दी है, जिसे अनंत काल तक हम न सिर्फ संजोकर रख सकते हैं अपितु उसका प्रयोग अपने दैनिक जीवन में करके अपने जीवन को न जाने कितने संकटों से मुक्ति भी दिला सकते हैं। योग, वह विद्या है, जिसका उपयोग आज सारे संसार में हो रहा है।
          
वर्तमान समय में कृषि, उद्योग, परिवहन, चिकित्सा आदि क्षेत्रों में विज्ञान की प्रगति ने हमें उपभोग की वस्तुएं और सुविधाएं प्रदान की है जिससे भौतिक स्तर पर मानव जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन आया है परंतु इस प्रगति ने हमें भीतर से खोखला कर दिया है। प्रकृति से बहुत अलग कर दिया है, संपूर्ण जीवन में कृत्रिमता आ गई है, यही कारण है आज सभी मानसिक एवं भावनात्मक तनाव से भरा जीवन व्यतीत कर रहे हैं। नशीली दवाओं का शिकंजा महामारी के रूप में हम पर कसता जा रहा है। फल स्वरूप नैतिक पतन भी उतनी ही तेजी से हो रहा है। देश के बच्चे और बड़े सभी मानसिक तनाव के कारण अपनी क्षमता को नष्ट कर रहे हैं। विद्यार्थी पढ़ नहीं पाते, अशांत और चंचल रहने तथा कुंठाओं से ग्रस्त जीवन होने के कारण उनकी स्मरण शक्ति पर असर पड़ रहा है, इस तनाव से निजात पाने का सीधा उपाय है-योग।

"योग है स्वास्थ्य के लिए लाभकारी,
योग रोग मुक्त जीवन के लिए गुणकारी"
योग संयमित एवं निरंतर निष्ठा के साथ दीर्घकाल तक चलने वाली क्रिया है, जिससे आत्मा का परमात्मा से मेल हो जाता है । ईसा से लगभग 2000 वर्ष पूर्व पतंजलि मुनि ने विस्मृत प्रायः प्राचीन वेद मूलक विद्या को लोकानुग्रह की अभिलाषा से पुनरुद्धार किया। हमारा मन राग- द्वेष के कारण बहुत उद्वेलित रहता है अतः चित्त को शांत करने पर ही आत्मा अपने स्वयं के स्वरूप को पहचान पाती है, जिसे आत्म साक्षात्कार कहा जाता है।
पतंजलि मुनि ने चित्त की वृत्तियों को रोकना भी योग का स्वरूप बताया है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, और समाधि ये योग के आठ अंग है।
समाज में समरसता बनाए रखने के लिए सत्य, अहिंसा, ब्रम्हचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह का कड़ाई से पालन करने के लिए है यह।
व्यक्ति के जीवन को सजीव, समर्थ और परोपकारी बनाने के लिए तथा संतोष, तप, स्वास्थ्य एवं ईश्वर के गुणों को समाहित करने से संबंधित है नियम।
यम और नियम से बंद कर चलता हुआ साधक योग मार्ग से कभी विचलित नहीं होता। प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ कृति इस मनुष्य शरीर को योग द्वारा विकसित किया जा सकता है। मनुष्य परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ पुत्र है अतः उसमें परमात्मा की सभी तेजोमय शक्तियां बीज रूपों में निहित है। आमतौर पर वही शक्तियां काम आती है, जिन्हें हम दैनिक जीवन में प्रयोग में लाते हैं। शेष प्रसुप्त स्थिति में तब तक प्रतीक्षा करती रहती है, जब तक कोई उन्हें यत्न पूर्वक जगाने की चेष्टा न करें। इन प्रसुप्त शक्तियों को योग द्वारा जगाकर मनुष्य परमात्मा के समान शक्तिशाली व आनंद स्वरूप बन सकता है।

प्राचीन समय से ही योग-साधना से अद्भुत शारीरिक क्षमता उत्पन्न की जाती रही है। हमारे पुराणों में भीम, दुर्योधन, कुंभकरण, हनुमान आदि के सुदृढ़ शरीर और वज्र समान काया के अनेक प्रसंग भरे पड़े हैं।

जिस व्यक्ति का मन स्वस्थ हो, वह शारीरिक कष्ट से सदैव दूर रहता है। मानसिक तनाव की स्थिति में वह व्यक्ति बात- बात में क्रोधित हो उठता है, थकावट महसूस करता है तथा उसके स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ जाता है।

योग में मानसिक तनाव दूर करने के सरल उपाय है श्वासन, योग निद्रा तथा प्राणायामो में नाड़ी शोधन,दीर्घ श्वास-प्रश्वास, शीतली, कपालभाति, भ्रामरी इत्यादि। योग द्वारा मानव चिंता रहित रहता है। सबसे अच्छी बात है अपनी आवश्यकताओं को सीमित कर जो भी उपलब्ध हो उसी पर संतोष करने का नजरिया बना लेना। ऐसी आनंदमयी स्थिति योग द्वारा ही संभव है।
अत:सुखमय जीवन के लिए योग करना जरूरी है तथा यह कार्य 10 से 15 मिनट हर रोज किया जा सकता है।
स्वयं को बदलो जग बदलेगा,
योग से सुखमय जीवन होगा।
योग एक सुखद एवं शांतिमय जीवन जीने की कला है, जिसके निरंतर अभ्यास से शरीर स्वस्थ तथा निरोगी रहता है, मन शांत रहता है। बुद्धि तीक्ष्ण  होती है। योग से ही हमारे अंदर विनम्रता, उदारता, मानवता जैसे मानवीय सद्गुणों की उत्पत्ति होती है, जो एक अच्छे चरित्र निर्माण में सहायक होती है।
विद्वानों ने भी कहा है--"स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास होता है।"
जनमानस में योग के प्रति चेतना जागृत करने के लिए तथा बृहद समाज को अवगत कराने के लिए जिला, प्रांतीय तथा राष्ट्रीय स्तर पर योग शिविरों का आयोजन होता है। हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने भी योग के गुणों को देखते हुए योग को अपनाने की सलाह दी है। २१जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस घोषित किया गया है। जिसमें ना केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी योग शिक्षा की उपयोगिता समझकर इसे अपनाने पर बल दिया गया है।
योग गुरु बाबा रामदेव जी के सफल प्रयास स्वरूप योग शिक्षा का प्रचार- प्रसार संपूर्ण विश्व भर में किया जा रहा है।
"योग है स्वास्थ्य के लिए क्रांति,
नियमित योग से जीवन में हो सुख शांति।"
योग जहां एक ओर हमें स्वस्थ तथा निरोगी बनाता है, वही दूसरी ओर उससे हमारे भीतर सात्विक आहार, सात्विक आचार- विचार, परस्पर प्रेम, अध्यात्म आदि गुणों का समावेश होता है। निरंतर योग साधना से सभी की अपने- अपने कर्म क्षेत्र में कार्यक्षमता बढ़ जाती है। योग बहुआयामी गुणों से युक्त होते हुए भी उसके प्रति समाज के युवा वर्ग की निष्ठा का अभाव खलता है। युवा वर्ग योग की महत्ता से अनभिज्ञ है। विद्वानों का कथन है कि किसी रोग की रोकथाम करना उसके उपचार से बहुत अच्छा है। अतः वर्तमान समय में युवा वर्ग को योग को अपनाकर जीवन की समूल व्याधि को नष्ट करना चाहिए।
"सुबह या शाम कभी भी कीजिए योग,
आपके जीवन में कभी ना आए रोग।"

हमें योग को अपनी दिनचर्या में जोड़कर उसे जीवन का अभिन्न अंग बनाना चाहिए। ताकि हम अपने जीवन को सुंदर, सफल, सुमधुर और स्वस्थ बना सके। इस प्रकार भारतीय योग के लोक कल्याण की भावना से ओतप्रोत महायज्ञ में हम सभी एक शांतिमय समाज की रचना करें जो अंततः लोक कल्याण में सहायक सिद्ध हो सके।
"स्वस्थ जीवन जीना जिंदगी की जमा पूंजी,
योग करना रोग मुक्त जीवन की कुंजी।"

बुधवार, 3 जून 2020

सांस्कृतिक संकट

सांस्कृतिक संकट
"युग- युग के संचित संस्कार, ऋषि मुनियों के उच्च विचार,
धीरों- वीरों के व्यवहार, है निज, संस्कृति के श्रृंगार।"
संस्कृत कोषो के अनुसार संस्कृति शब्द का अर्थ है सजाना, सवारना ,अलंकृत करना इसलिए कालांतर में इसके अर्थ का विस्तार अच्छे कर्मों के लिए होने लगा।
जैनेंद्र कुमार के अनुसार संस्कृति मानव जाति की वह रचना है जो एक को दूसरे के मेल में लाकर उनमें सौहार्द की भावना पैदा करती है। वह जोड़ती है और मिलाती है। उसका परिणाम व्यक्ति में आत्मोपयता की भावना का विकास और समाज का सर्वोदय है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि अनुभव और अभ्यास से मनुष्य की बुद्धि में अर्थात सोचने- विचारने में जैसे-जैसे विकास होता है, वैसे- वैसे उसकी संस्कृति विकसित होती है। मनुष्य में निरभिमानता,औदार्य एवं माधुर्य आदि गुणों को उत्पन्न करने वाली संस्कृति ही है। संस्कृति का क्षेत्र यहीं तक सीमित नहीं है अपितु हमारी बोलचाल की भाषा, उठने बैठने का ढंग, जीवन के उपकरण, खानपान ,आसन, आवास, रीति रिवाज आदि का परिष्कार करके उसमें लालित्य लाने का श्रेय संस्कृति को ही जाता है।
सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि तत्व भारतीय संस्कृति में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। अहिंसा व सहिष्णुता तो हमारी आत्मा है। किसी भी प्राणी को मनसा, वाचा, कर्मणा कोई दुख ना हो सभी समान व प्रसन्न जीवन यापन करें, यही हमारी मुख्य भावना रही है। गांधी जी ने अहिंसा के बल पर ही हमारे देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराया था। आत्मसंयत, तप व त्याग की भावना, गुरुजन व मित्र पर आस्था, उदारता आदि भावों की झलक भी हमें सिर्फ भारतीय संस्कृति में ही देखने को मिलती है। ज्ञान व शिक्षा आरंभ से ही भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग रहे हैं। ज्ञानियों ऋषि-मुनियों का समाज में बहुत ही आदर व सत्कार किया जाता है। विरोधी की ज्ञान पूर्ण बातों को भी पर्याप्त महत्व दिया जाता है। यही नहीं सभी के साथ प्रेम ,कृतज्ञता, अभिवादन करना आदि हमारी संस्कृति को और भी विकसित करता है।
सब भारतीय एक है। न कोई हिंदू है, न कोई मुसलमान और नहीं कोई इसाई। यदि मुसलमान स्वयं को भारतीय नहीं मानते तो उपनिषदों का अनुवाद फारसी में ना करते और नाही यूनान के तत्त्वचिंतकों को बारह मिहिर ऋषि कहते। यह भारतीय मन ही है,जो हिंदू को जायसी के पद्मावत का रसास्वाद कराता है और मुसलमान को कृष्ण के सौंदर्य की ओर आकृष्ट करता है। माइकल मधुसूदन दत्त से विरहिणी व्रजांगना लिखाता है।
किंतु वर्तमान आधुनिक प्रणाली में हमने राष्ट्रीय संस्कृति में रचे बसे आदर्शों व कर्तव्य को भुला दिया है। प्रत्येक राज्य, प्रांत, जाति, धर्म अपनी- अपनी संस्कृति को ऊंचा उठाने में लगे हैं किंतु संस्कृति के पीछे व्याप्त एक्य के भाव को हमने तिलांजलि दे दी है। हमारे राजनेता संस्कृति के अहम अंग धार्मिक भावनाओं को लेकर अपनी राजनैतिक रोटियां सेक रहे हैं। धर्म के नाम पर लोगों से लोगों को लड़वाकर भाईचारे के बीच विषमता के बीज बो रहे हैं। महज वोटों के लिए धर्म को राजनीति का हथकंडा बना रहे हैं।
यही नहीं अपने जीवन स्तर को ऊंचा उठाने की वृत्ति ने हमारा वैचारिक पतन कर दिया है। पश्चिमी देशों का अंधाधुंध अनुकरण ही हमें हमारी संस्कृति से विरक्त करता जा रहा है। बड़ों के आदर, सम्मान की भावना को भुलाकर आज हमने अपने आप को छोटा बना दिया है। 'पर' के बारे में देखने की बात तो दूर हमने 'स्व' के कारण 'पर' के बारे में सोचना भी बंद कर दिया है। हमारी संस्कृति के पीछे मूल भाव है, हमारी एकता। किंतु हमने उसी एकता को भुलाकर बिखराव व अनेकता को अपना लिया है। ऐसे में आवश्यक है की हम एकता का पाठ चीटियों से सीखें।
वर्तमान परिस्थिति में मानव जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार अनैतिकता, अराजकता, घूसखोरी आदि बुराइयों को समूल जड़ से समाप्त करने के लिए हमें अपनी संस्कृति के अहम अंगों का उपयोग करना अति आवश्यक हो गया है।
हम अक्सर अखबारों में पढ़ते हैं कि भारतीय संस्कृति सर्वोज्ञ है कभी रूस, भारतीय संस्कृति की प्रशंसा करता है ,तो कभी अमेरिका और ब्रिटेन। किंतु भारतीय मन ही भारतीय संस्कृति को समझ नहीं पा रहा है। खानपान, रहन- सहन आदि सभी में हम पश्चिमी सभ्यता, संस्कृति को अपनाकर अपना स्तर नीचे गिरा रहे हैं। वह भारतीय संस्कृति जिसे विदेशों ने देखा, परखा, समझा, उसे अपनाया भी, किंतु भारत में ही वह हो गई है।
 संगीत,नृत्य, खान- पान, पोशाक, रहन- सहन आदि सभी बातों में हम पश्चिमी देशों की नकल कर रहे हैं।जिससे भारतीय संस्कृति अपनी जड़ों को समाप्त करती हुई सी जान पड़ती है। जो कि हमारे लिए किसी भयानक संकट से कम नहीं।
स्वराज्य के लिए जैसे रचनात्मक कार्य किया गया। वैसे ही संस्कृति के लिए भी कुछ रचनात्मक कार्य करने की आवश्यकता है। संस्कृति की लंबी- चौड़ी बातें करने की बजाय यदि मानव-मात्र अपने स्वभाव को परिष्कृत करने के लिए दैनिक जीवन में सुरुचि का संचार अथवा संस्कारिता का उन्मेष करे तो संस्कृति स्वयं सजीव हो जाएगी। संस्कृति को देव प्रतिमाओं की तरह केवल पाषाण पूजा नहीं देनी है। उसे जीवन में जीवित करना है। उसे जन संस्कृति बना देना है। तभी संस्कृति पर छाया संकट मिट सकेगा।
                                          राजेश्री गुप्ता

रविवार, 31 मई 2020

छात्र शक्ति का दुरुपयोग

छात्र शक्ति का दुरुपयोग
यूनान, मिस्र, रोम सब, मिट गए जहां से।
बाकी अभी तलक है, नामोनिशान हमारा।
सच कहा है कवि ने कुछ तो बात है हममें, हमारे देश में और वह बात है, हमारी सभ्यता, हमारी संस्कृति, जिसका संवर्धन, हम अपने छात्रों के मार्फत कर रहे हैं और उनकी शक्ति को सकारात्मक दिशा देकर गतिशील कर रहे हैं।
किसी भी राष्ट्र का विद्यार्थी वर्ग उसकी सुकुमारता एवं यौवन का प्रतीक हुआ करता है। राष्ट्र -मन उसी के साथ घुटनों के बल रेंगा खेला- कूदा, मुस्कुराया और खिलखिलाया करता है।
राष्ट्रीय चेतना इन्हीं पर अपनी दृष्टि केंद्रित करके वर्तमान में जिया और भविष्य के सपने देखा करती है।
छात्र, समाज के उस स्तंभ की तरह होते हैं, जिस पर समाज का भव्य महल खड़ा होता है। समाज का यह वर्ग, असंतुष्ट होकर अनेक महान कार्यों को अंजाम दे सकता है। यह वर्ग अपनी शक्ति के बलबूते राष्ट्र को एक नई दिशा दे सकता है।
भारत में छात्र शक्ति का दुरुपयोग कर पाना एक बड़ी बात है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि छात्र शक्तियां नष्ट हो जाती है। बहुत से छात्रों को पढ़ लिख कर भी बेकारी झेलनी पड़ती है। ऐसे छात्र तब अपना ध्यान विनाशात्मक  गतिविधियों पर केंद्रित कर अपनी शक्ति का दुरुपयोग करने लगते हैं।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।
ये छात्र कभी किसी आतंक गिरोह में शामिल होकर बेकसूर नागरिकों की हत्या करते हैं, तो कभी आत्मघाती दस्ता बनकर दूसरों के साथ- साथ स्वयं को भी खत्म कर देते हैं।
कभी यह हिंसक ढंग से समाज सुधार का कार्य करने की चेष्टा करते हैं, जिससे अंततोगत्वा समाज को ही क्षति होती है। भटके हुए छात्र अपनी शक्ति का प्रयोग चुनाव के समय बूथ लूटने में करने लगते हैं तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता है। ये छात्र अपनी शक्ति का प्रदर्शन पुलिस वालों को मारने, आतंक मचाने के रूप में कर राष्ट्र को कमजोर करते हैं।
भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की अनदेखी कर हमारे बहुत से छात्र पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृति की नकल कर रहे हैं। हमारे छात्रों में शारीरिक शक्ति की कमी नहीं है परंतु वह मानसिक दिवालियेपन का शिकार होकर अपनी ही जड़ों को काटते हुए दिखाई देते हैं।
छात्र-छात्राओं के जीवन में अश्लीलता का समावेश हो गया है। वे अनुशासन हीन हो गए हैं। इनमें नशा करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है जबकि बहुत से छात्रों को सुख-सुविधाओं की भरमार है।
छात्रों पर पारिवारिक नियंत्रण नहीं रह गया है इसलिए उनकी उद्दंडता और बढ़ गई है। हमारी छात्रशक्ति परीक्षाओं में नकल करने में यकीन रखती है। उन्हें भारतीय पर्व त्योहारों की अपेक्षा 'वैलेंटाइन डे' अधिक प्यारा लगता है।
हम छात्र शक्ति को देश के विकास में भागीदारी करने का अवसर देने में विफल हो रहे हैं। हमारी छात्र शक्ति कर्तव्य हीन होकर अपनी ही क्षुद्र गतिविधियों में कैद है। छात्र शक्ति को नियोजित करने की आवश्यकता दिनों दिन बढ़ती जा रही है।
यह विचारणीय विषय है कि हमारे छात्रों के समक्ष कौन-कौन से आदर्श है? यदि छात्रों का आदर्श यह है कि अधिकाधिक सुख-सुविधाओं के साधनों को किसी भी तरह से प्राप्त किया जाए तो फिर भगवान ही मालिक है किंतु वर्तमान का सच यही है कि छात्र कम से कम समय में अधिक से अधिक पाने की लालसा रखता है। उसे अपने जीवन में सब कुछ बहुत जल्दी प्राप्त करना होता है। कम समय में आसमान छूने की उसकी सोच उसे गलत कार्य करने के लिए प्रेरित करती है।
एकल परिवार के कारण इन बच्चों पर ना तो दादा दादी का साया होता है ना ही परिवार के किसी अन्य सदस्य की देखरेख। माता- पिता दोनों के कार्य पर चले जाने के कारण बालक दिन भर घर में खुद को अकेला पाता है। यही कारण है कि वह टीवी, कंप्यूटर, मोबाइल आदि की कैद में खुद को जकड़ा हुआ पाता है। इन सब का उसके कोमल मस्तिष्क पर इतना असर होता है कि या तो वह आक्रामक बनता है या असभ्य।
जहां उसे एक आदर्श नागरिक बनने की तालीम मिलनी चाहिए थी, वहां उसका बचपन हिंसा मारधाड़ गंदी अश्लील फिल्में देखने में व्यतीत होता है। बच्चा महात्मा गांधी को नहीं माइकल जैक्सन को पसंद करने लगता है। शिवाजी की कथाएं उसे रास नहीं आती। स्वतंत्रता सेनानी उसके आदर्श नहीं रह जाते बल्कि ओसामा बिन लादेन को वह अपना प्रेरणास्रोत मानने लगता है।
छात्र शक्ति का दुरुपयोग राजनीति में भी बखूबी हो रहा है। वर्तमान राजनीतिज्ञ अपने क्षुद्र स्वार्थ के लिए छात्र शक्ति को बहका कर उसे गलत रास्ता दिखा रहे हैं ।हिंसात्मक गतिविधियों के लिए छात्रों का प्रयोग आम हो गया है। प्रदर्शन करना, नारे लगाना, लूटपाट करना, लोगों को डराना आदि के लिए इन्हीं छात्रों का प्रयोग किया जाता है। उन्हें सब्जबाग दिखाकर उनके भविष्य को अंधकार में घसीटा जा रहा है।
हमारा देश प्रगति के रथ पर रथारुढ़ है। उसे और आगे ले जाने का कार्य इन्हीं छात्रों का है। यदि इनकी शक्ति को नियोजित किया जाए तो यकीनन हमें जीतने से कोई नहीं रोक सकता, हमें आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता, हमारा देश फिर से सोने की चिड़िया बन सकता है।
देव देव है,दनुज-दनुज ही
किंतु दोनों ओर जा सकते हैं, मनुज ही।
                                            राजेश्री गुप्ता

शुक्रवार, 29 मई 2020

मीठे वचनों की सार्थकता

मीठे वचनों की सार्थकता
पोथी पढ़ी- पढ़ी जग मुआ,
पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का,
पढ़े सो पंडित होय।।
कबीर जी तो बहुत पहले ही बता गए थे कि पोथी पढ़- पढ़ कर कोई विद्वान नहीं बनता। जिसने ढाई अक्षर प्रेम का सीख लिया, वही पंडित बन जाता है अर्थात प्रेम में बहुत शक्ति होती है। प्रेम से बड़ी से बड़ी नफरत को भी मिटाया जा सकता है। कबीर जी ही नहीं हर विद्वान व्यक्ति प्रेम की महत्ता को स्वीकार करता है। हम बहुत पढ़ लिख ले पर यदि हम ठीक ढंग से किसी से बात ही नहीं करें, तो हमारी इतनी पढ़ाई लिखाई व्यर्थ ही है ।शिक्षा हमें प्रेम सिखाती है, सभी से प्रेम पूर्वक व्यवहार करना सिखाती है, हर व्यक्ति को सम्मान देना सिखाती है।
मैं ऐसा मानती हूं कि हम सभी जो इस धरती पर विचर रहे हैं। मनुष्य, पशु- पक्षी पेड़- पौधे सभी प्रेम के भूखे होते हैं।
हम प्रायः घरों में देखते हैं कि एक छोटे बच्चे को जिससे
 अधिक प्रेम मिलता है ,वह उसी की ओर आकर्षित होता है। ‌उसी से उसका तालमेल अधिक हो जाता है ।पालतू पशु- पक्षी भी प्रेम की ही भाषा समझते हैं। वे भी जानते हैं कि कौन उनसे कितना प्रेम करता है।
 किसी जनजाति में अगर पेड़ को काटना होता था तो उस जनजाति के लोग उस पेड़ के इर्द-गिर्द खड़े होकर उसे कोसना शुरू कर देते थे जिसके बाद वह पेड़ अपने आप ही सूख जाता था यह सभी उदाहरण हमें बताते हैं कि प्रेम इस भावना से सभी प्रभावित होते हैं।
मनुष्य अपनी सद्भावना ओं का अधिकांश प्रदर्शन वचनों द्वारा ही किया करता है। मधुर वचन, प्रेम भरे वचन मीठी औषधि के समान लगते हैं, तो कड़वे वचन तीर के समान चुभते हैं।
जो व्यक्ति प्रेम भरे बोल नहीं बोलता वह अपनी ही वाणी का दुरुपयोग करता है। ऐसा व्यक्ति संसार में अपनी प्रतिष्ठा खो बैठता है तथा अपने जीवन को कष्टकारी बना लेता है। कटु वचनों के कारण उसका बनता काम बिगड़ जाता है। वह प्रतिपल अपने विरोधियों व शत्रुओं को जन्म देता है। ऐसे व्यक्ति को सदा अकेलापन झेलना पड़ता है तथा मुसीबत के समय लोग उनसे मुंह फेर लेते हैं।
कोयल काको देत है, कागा कासो लेत।
तुलसी मीठे वचन से, सबका मन हर लेत।।
अर्थात ना तो कोयल किसी को कुछ देती है, ना तो कौआ किसी से कुछ लेता है। बस कोयल अपनी मीठी वाणी की वजह से ही  सबके मन को प्रसन्न कर लेती है अतः मीठे वचन, प्रेम से बोली गई वाणी को सुनकर सबका ह्रदय खिल उठता है।
जिस प्रेम भरी वाणी या प्रेम से सभी के ह्रदय में प्रेम उपजता है, उससे निर्धन भी कैसे अछूता रह सकता है ।निर्धन या गरीब व्यक्ति धन से विपन्न होता है । ऐसे में यदि कोई उससे कटु वचन कहें , नफरत करें, अशिष्ट आचरण करें तो उसके दिल को पीड़ा पहुंचती है। प्रायः देखा गया है कि अमीर वर्ग, गरीब वर्ग का शोषण करता है ,उसे अपमानित करता है ।जिससे वर्ग भेद की एक बड़ी समस्या का सामना हमारा समाज कर रहा है। जो निर्धन धन का मारा है। दो वक्त का भोजन भी जुटा नहीं पाता। समाज के संपन्न वर्ग से भी दुत्कारा  जाता है। ऐसा निर्धन व्यक्ति धन नहीं चाहता। वह केवल इतना चाहता है कि भले ही उसे रोटी ना मिले पर समाज का संपन्न वर्ग उससे प्रेम से पेश आएं। वह रोटी का भूखा नहीं है। वह प्रेम का, सम्मान का भूखा है। उसे अगर वह प्रेम, वह सम्मान प्राप्त हो गया तो उसकी क्षुधा अपने आप शांत हो जाएगी।
वशीकरण एक मंत्र है, तज दे वचन कठोर।
तुलसी मीठे वचन ते, सुख उपजत चहुं ओर।।
प्रेम भरी वाणी के कारण जहां सरोजनी नायडू भारत की कोकिला कहलाई। वहीं पर महात्मा गांधी जी संपूर्ण देश के पिता बन गए। महात्मा बुद्ध के प्रेम ने अंगुलिमाल को संत बना दिया तो शबरी के प्रेम ने राम को उसके झूठे बेर खाने के लिए विवश कर दिया। तुलसी के प्रेम ने राम को पा लिया तो मीरा के प्रेम ने उसे श्रीकृष्ण से मिला दिया।
प्रेम का बंधन अनूठा है। इसमें इतनी शक्ति है कि स्वयं ईश्वर को भी धरती पर अवतरित होना पड़ता है।अंत:
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोए।
औरन को शीतल करै, आपहुं शीतल होय।।
                                                 राजेश्री गुप्ता

गुरुवार, 28 मई 2020

आधुनिक स्त्री सक्षमीकरण

आधुनिक स्त्री सक्षमीकरण
ढोल, गंवार, शुद्र, पशु, नारी,
सब है ताड़न के अधिकारी।
एक काल में ऐसा कहने वाले कवि आज होते तो शायद उन्हें अपने कहने पर पछतावा होता।
जब स्त्री जाति को अबला कहा जाता है तो निश्चित ही यह कथन उनकी दयनीय स्थिति को बयान करता दिखाई देता है। क्या स्त्रियां सचमुच दया के योग्य है?
क्या ईश्वर ने स्त्रियों को सचमुच अबला रूप में उत्पन्न किया है? यह सवाल समाज में लंबे समय से उठाए जा रहे हैं।
स्त्रियों की शरीर रचना में पुरुषों जैसी कठोरता नहीं है क्योंकि प्रकृति ने उसे सौंदर्य का प्रतीक मानकर शारीरिक कोमलता प्रदान की है। वही कोमल, अबला स्त्री ने वर्तमान परिप्रेक्ष्य में स्वयं को हर कार्य के लिए सक्षम सिद्ध किया है।
आज की नारी अर्धांगिनी नहीं बल्कि पूर्णांगिनी है और इस तथ्य को वह विविध रूपों में सिद्ध कर चुकी है। वर्तमान समय में ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा है, जहां नारी का पदार्पण ना हो चुका हो। आज की नारी सर्वसामान्य पदों से लेकर उच्चतम पदों पर आसीन होकर अपने दायित्व का सफल निर्वाह कर रही है। उसकी सेवा और योग्यता किसी भी तरह से पुरुषों से कमतर नहीं है। आज की नारियां स्वच्छंद रूप से तथा अपने बलबूते उद्योग, व्यवसाय, कल कारखाने तथा अन्य प्रकार की व्यावसायिक गतिविधियों को पूरी दक्षता के साथ संचालित कर रही है।

नारी की शारीरिक शक्ति पुरुषों की तुलना में कम होने का मतलब यह नहीं कि वे कमजोर और अबला है। शारीरिक शक्ति कम होते हुए भी उन्हें धैर्य अधिक है। फलत: वे तनाव का कम शिकार होती हैं। पुरुषों की तुलना में स्त्रियां ह्रदय रोग से कम पीड़ित होती है।वे अहंकार और पद की दौड़ में नहीं लगी रहती।
मीराबाई ने प्रेम के मार्ग को चुनकर नारी स्वतंत्रता का एक अनोखा मार्ग दिखाया।
आज के युग में नारियों की भूमिका बदलती दिखाई दे रही है। वे सभी सामाजिक क्षेत्रों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए आतुर दिखाई दे रही हैैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, कला, राजनीति, विज्ञान आदि दुनिया का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है, जहां स्त्रियों ने अपनी पहुंच न बनाई हो। अब तो पुलिस विभाग में भी महिलाएं हैं तथा सफलतापूर्वक कानून और व्यवस्था को संभाल रही हैं। इस क्षेत्र में महिला पुलिस अधिकारी किरण बेदी का नाम बड़े गर्व से लिया जाता है। भारतीय महिला इंदिरा गांधी का नाम दुनिया में कौन नहीं जानता ? जिन्होंने यह सिद्ध कर दिखाया कि सत्ता के शीर्ष पर महिलाएं उतनी ही सफल हैं। उनका एक लंबे समय तक भारतीय राजनीति में छाए रहना यह सिद्ध करता है कि नारियों में भी देश संचालन की क्षमता भरपूर है। सोनिया गांधी, सुषमा स्वराज, मेनका गांधी, बेनजीर भुट्टो, स्मृति ईरानी आदि कई ऐसे नाम है जिन्हें हम भूल नहीं सकते।
अस्पतालों से यदि नर्सों को हटा दिया जाए तो पूरी दुनिया की स्वास्थ्य सेवा तत्काल थप्पड़ जाएगी। मनोरंजन, उद्योग में स्त्रियों की भागीदारी को अनदेखा नहीं किया जा सकता। महिलाएं अंतरिक्ष अभियान में भी साझीदार बनी है। इन क्षमताओं को देखते हुए यह कैसे कहा जा सकता है कि अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी आंचल में है दूध, आंखों में पानी।
समाजशास्त्री कहते हैं कि नारी पुरुषों के साथ सहयोग करें तो ठीक है, लेकिन प्रतियोगिता करें, तो यह गलत है। आधुनिक नारी, पुरुषों से प्रतियोगिता नहीं कर रही। वह तो उसके कंधे से कंधा मिलाकर आगे बढ़ना चाहती है। जिससे परिवार, समाज, देश का विकास हो। देश के हित में अपना योगदान देना चाहती है। नृत्य, संगीत, कला, लेखन आदि क्षेत्रों में अपनी भूमिका को आगे बढ़ाना चाहती है।

आधुनिक नारी को नौकरी करने, अपना व्यवसाय करने, राजनीति में भाग लेने, घूमने- फिरने आदि की पूरी आजादी मिली हुई है। भारतीय संविधान में प्रदत्त अधिकारों के तहत को कुप्रथाओं का अंत कर दिया गया है। समाज की सोच भी स्त्रियों के बारे में उदार हुई है। परंतु सामाजिक परिवर्तनों का लाभ अधिकतर पढ़ी-लिखी महिलाएं ही उठा पा रही है। निर्धन, अशिक्षित तथा असहाय स्त्रियों का एक तबका आज भी अपने अधिकारों के बारे में अनभिज्ञ है।
सरकार द्वारा चलाए गए विभिन्न कार्यक्रम जैसे बेटी पढ़ी, प्रगति हुई। बेटी बचाओ, देश बचाओ। आदि के द्वारा नारी के सशक्तिकरण को और अधिक सशक्त बनाया जा सकता है।
आधुनिक स्त्री सक्षम है। हर कार्य को करने के लिए। वह केवल मंदिर की देवी बनकर नहीं रहना चाहती।
 उसने अपनी छवि बदली है। वह घर- बाहर की दोहरी भूमिका निभा रही है। उसे छोटा या ओछा कहना या कमजोर मानना, वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सही नहीं है। आत्मरक्षा का कवच पहनकर वो कैब चलाती है, तो जहाज भी उड़ा लेती है।
उसने अपनी भूमिका में जो बदलाव लाया है, वह सराहनीय है। आधुनिक समय में उसकी  सक्षमता पर कोई प्रश्र चिन्ह नहीं लगा सकता। वह एवरेस्ट की चोटी पर तो अपने पांव रख ही आई है, चंद्रलोक की यात्रा भी कर आई है।
प्रसाद जी ने कहा है- 
नारी तुम केवल श्रद्धा हो,
विश्वास रजत नग पग तल में।
पीयूष स्रोत सी बहा करो,
जीवन के सुंदर समतल में।
                              राजेश्री गुप्ता

सोमवार, 25 मई 2020

चांद

चांद
ए चांद कितना अच्छा है तू।
करवा चौथ और ईद,
दोनों के लिए आता है।
सिखा सकता है तो सिखा उनको,
मजहब के नाम पर जो दुकानें चलाते हैं।
धर्म के नाम पर भाई-भाई को लड़ाते हैं।
बता उनको कि तेरी चांदनी,
सब पर बरसती है।
तेरी रोशनी,
हर एक तक पहुंचती है।
अमीर- गरीब का फर्क तो,
तूने किया ही नहीं कभी।
ए चांद,
फलक पर तू सजता है।
अमावस को छोड़,
हर रोज निकलता है।
सब तुझे रोज देखते हैं,
फिर क्यों नहीं समझते हैं।
ए चांद,
मेरा भी, साथी है तू।
मेरी खिड़की से ,
ताका करती हूं तुझे।
रोज तेरे रूप को,
आका करती हूं मैं।
कभी छोटा, कभी बड़ा
और कभी और बड़ा हो जाता है तू।
लेकिन, अपने हर रूप से,
लुभाता है तू।
तुझे चाहने वाले,
इस दुनिया में बहुत हैं।
तुझ पर गीत और ग़ज़ल,
गाने वाले भी बहुत हैं।
सिर्फ, तू जो कहना चाहता है
वह लोगों को नहीं समझता।
समझाना चाहता है,
तो समझा,
करवा चौथ और ईद,
दोनों का है तू।
और यह भी बता
कि इस पूरी कायनात में
मानवता ही एक जाति है।
इंसानियत ही एक जज्बा है।
मानवता ही एक जाति है।
इंसानियत ही एक जज्बा है।
                            राजेश्री गुप्ता

गुरुवार, 21 मई 2020

स्वार्थ

स्वार्थ
किसी ने मुझसे कहा कि आज खुद को हंसने के लिए औरों को रुलाना जरुरी हो गया है, नहीं तो संसार जीने नहीं देता और नाही उस व्यक्ति को बुद्धिमान समझता है।
          कभी से बैठकर यही सोच रही हूं कि क्या ये सही है ? आज स्वार्थ इतना फैला गया है कि लोग अपना दामन बचाने के लिए दूसरों पर कीचड़ लगाने से बाज़ नहीं आते। खुद का आंचल साफ,स्वच्छ रखने के लिए दूसरों के आंचल पर गंदगी लगा देते हैं। दूसरों के आंचल पर लगा पैबंद इन्हें खूब भाता है। दूसरों पर हंसना,उनका मजाक बनाना यही सब में ये मस्त रहते हैं।
          अपनी गलतियों को छुपाकर दूसरों को दोषारोपित करने में इन्हें बहुत रस मिलता है।हम ऐसी दुनिया में रहते हैं।
            क्या सचमुच ऐसी दुनिया में रहने के लिए चालाक होना ज़रूरी है ? केवल सहकर रहने वाला या रो कर रहने वाला जिंदगी नहीं जीता ? क्या खुद को सुखी रखने के लिए दूसरों को दुख देना ज़रूरी है?
            आदर्शों की दुनिया वास्तविक दुनिया से कितनी भिन्न है। अब भी मैं केवल स्वार्थ के बारे में ही सोच रहीं हूं। आप भी सोचिएगा। 
                                             राजेश्री गुप्ता

सोमवार, 11 मई 2020

संबंधों की जटिलता

संबंधों की जटिलता
संबंधों की जटिलता पर 
विचार करते हुए
ये प्रश्र आ गया
कि ये रिश्ता क्या है ?
हम क्यों इसे,
इतना महत्व देते हैं ?
क्यों इसकी गहराइयों को
समझने की कोशिश करते हैं ?
सुना था, रिश्ते पनपते हैं
स्नेह से।
पर कड़वाहट भी तो होती है
फिर क्यों हम उन रिश्तों को
लेकर चलते हैं ?
रिश्ते चाहे जो भी हो,
मां- बेटी का,बहन- भाई का
या पति-पत्नी का
सबमें स्नेह, सौहार्द होना आवश्यक है
और उससे भी आवश्यक है
विश्वास।
वह विश्वास जो कभी ना टूटे,
कभी ना छूटे
वह विश्वास जो रिश्तों को दृढ़ करें।
उसे सींचे,
पल्लवित करें पौधों सा।
पर सोचती हूं !
क्या ये विश्वास आज टिका है ?
और टिका भी है तो,
कितनों के बीच।
आज भी स्वार्थ की रेखाएं,
लांघ जाती है,कितनों को ?
वह चढ़ जाता है,
स्वार्थ की बलि ।
और विश्वास वही रह जाता है,
धरा का धरा।
फिर भी रिश्तों की डोर तो,
बंधी ही है विश्वास के सहारे।
या यूं कहें कि 
प्रेम और स्नेह के सहारे।
यह मोह माया का चक्कर है,
जो एक दूसरे को,
एक दूसरे से,
बांध कर रखता है
और शायद इसीलिए ही इस
रिश्तों की जकड़न में,
जकड़ती चली जा रही हूं मैं।
फिर भी सोचती हूं कि ये
रिश्ता क्या है ?
और क्यों है ?
क्यों मैं उसमें जकड़ती
चली जा रही हूं।
सिर्फ प्रेम और स्नेह तो नहीं है इसमें,
स्वार्थ, खुदगर्जी भी है इसमें ।
सबका स्वार्थ,सब से बंधा है।
मेरा स्वार्थ, उससे बंधा है।
क्या इसलिए रिश्ते निभाने चाहिए ?
या फिर मुझे उसे भूलाने चाहिए।
भुलाना तो मुश्किल है ?
पर क्यों ?
यह भी कहना मुश्किल है।
मेरा संदर्भ भी ,
क्या किसी और का भी 
हो सकता है ?
जैसे मैं विचलीत हूं
क्या कोई और भी 
हो सकता है ?
संबंधों की जटिलता का
प्रश्र है।
समझ से, कोसों दूर है।
फिर भी निभाना 
पड़ता है।।
               राजेश्री गुप्ता बनिया

शुक्रवार, 8 मई 2020

आदमी

आदमी
महसूस किया है,इक सहर को
कि आदमी मोहताज नहीं है।
ईश्वर की इस कृति का, कोई सरोताज नहीं है।
चढ़ हिमालय पर उसने, साबित यही किया
कि अब वह कभी लाचार नहीं है।
पौरुष है उसके पास, है दिमाग भी इसलिए
संसार में जो उससे जीते,
वह आदमी अभी तैयार नहीं है।
ब्रह्मा को अपनी कृति पर नाज़ है बड़ा
इसलिए आदमी अवगुणों से भी भरा
अहंकार शिरोमणि का ताज भी गढ़ा
रावण भी इसलिए ही मरा ।
सर्वोत्तम पुरुषोत्तम राम है
इसलिए वह इंसान, इंसान हैं,
जो सद्गुणो की खान है।
                           राजेश्री गुप्ता बनिया

जिंदगी

जिंदगी
जिंदगी ने हमें जीना सिखाया,
जीते हुए भी लड़ना सिखाया।
वक्त का मरहम, भरता है जख्म।
ताज़ा हो तो, दुखता है जख्म।
इन सभी बातों का तकाजा,
वास्तविक रूप में हमें बताया,
जिंदगी ने हमें जीना सिखाया।
जानती हूं मैं, जिंदगी को करीब से
पल- पल की हंसी,पल-पल के ग़म में।
तराशा है मैंने, एक जौहरी सा
जिंदगी का कोई मुकाम मैंने खोया भी नहीं
खोकर भी मैंने कुछ पाया नहीं
ये हैं जिंदगी की कड़वी सच्चाई 
मरकर ही यहां, हर एक ने जन्नत है पायी।
जीवन में संघर्ष है, यहां पर सभी के
कोई हंस कर झेलता है, तो कोई रोकर
मगर जीवन की सार्थकता है,
तो सिर्फ दुख ढोकर।
ऐसा नहीं कि कभी,सुख ना आए
पर दुख से मन क्यों कतराता है,
बार- बार सुख पाने को ये मन
क्यों ललचा जाता है ?
लेकिन जीवन की यही सत्यता,
हर मनुष्य की यही विवशता,
कभी- कभी जी करता है,
जीवन से उठ जाने से,
मगर मौत के करीब आते ही,
वह प्यार करने लगता है जीवन से।
वह प्यार करने लगता है जीवन से।
                                       राजेश्री गुप्ता बनिया

शुक्रवार, 1 मई 2020

शुभकामना

जीवन में हर पल, आगे बढ़ना।
कभी भी पीछे मुड़कर न देखना,
क्योंकि आगे बढ़ना ही जीवन है,
रुकना तो मौत की निशानी है।
संघर्ष तो जीवन में सबके होता है,
डर के उससे क्या कोई रोता है ?
प्रकृति का नियम है कि
वह हर पल बदलती है।
इसी तरह दुखों की कड़ी
धूप भी इक दिन,
सुख की शीतल छांव में ढलती है।
मेरी यही कामना,
सभी के प्रति समर्पित यह भावना
जीवन आपका जगमगाता रहे,
आशाओं के दीप से।
राहों में बिछे खुशियों के सुमन,
आंसू बन जाए मोती सीप के।
                             राजेश्री गुप्ता

मैं

मैं कौन हूं  ?
ये मैं ना जानूं
ये मैं क्या है ?
ये मैं ना जानूं।
जीवन का पल,
कहां खत्म होगा।
उसमें मैं होगा,
या ना होगा।
मैं है, या नहीं है।
ये मुझमें है या उसमें है।
लेकिन ये मैं है,
बड़ा अभिमानी।
इसके पीछे पडके,
दुनिया है हारी।
रावण और कंस है,
इसकी दास्तां।
कवियों ने कही है,
इसकी खलिस्ता।
हर शहर,हर डगर पर।
ये मैं है।
हर इंसान में, दुबका हुआ।
किसी कोने में, सिकुड़ा हुआ।
ये मैं है।
इसकी दास्तां ,
हर इक मुखाफित है।
रात हो या दिन हो,
हर पल का चित है।
ऐसा ये मैं है।
ऐसा ये मैं है।
              राजेश्री गुप्ता

रिश्ते

रिश्ते भी मजबूत हुआ करते हैं
पानी के बुलबुलों की तरह।
                            राजेश्री गुप्ता

झूठ



झूठ भी एहसास हुआ करते हैं
सच से ज्यादा ताकतवर हुआ क‌रते है
कभी यही झूठ बहला देते है मन को
अंधेरे में जो इक दीया सा दिखा देते हैं
सच तो केवल कड़वाहट देता है
जीते जी नहीं केवल मरने के बाद साथ देता है
झूठ के दम पर माना दुनिया नहीं टिकती
फिर भी ये झूठ एहसास हुआ करते हैं
मन को मन से बांधने के लिए
साथ दिया करते हैं।
                           राजेश्री गुप्ता

बुधवार, 29 अप्रैल 2020

घर

कितने जतन कर मैंने घर बनाया
उसी घर का हर एक कोना सजाया
महंगें से महंगा सामान भी मंगवाया
किंतु विडंबना देखो
जिस घर को बनाने के लिए 
पल-पल मरती रही मैं
उसी घर में निरंतर रहना
दुश्वार हो गया है।
मानव मन घर से ज्यादा
बाहर भटकने को आतुर हो गया
वहीं घर जो मैंने
इतने परिश्रम से बनाया
मुझे रास नहीं आ रहा है
न जाने क्यों ये मन
बाहर गली - चौबारे ढूंढ रहा है
यही विडंबना है मानव मन की
नासमझ मन जान ही नहीं पाता
उसे बंधन नहीं स्वतंत्रता चाहिए
वहीं स्वतंत्रता जो उसे
घर से बाहर निकल कर
प्राप्त होती है।
                    राजेश्री गुप्ता

मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

चेहरा

भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता,
बाढ़ की कोई शक्ल नहीं होती।
भीड़ और बाढ़ दोनों का मंजर
अक्सर नजर आता है 
उनके गुजरने के बाद
उनके प्रवाह में सब 
सब ढह जाता है
खिलखिलाता उपवन
श्मशान बना जाता है
सब तरफ,उ‌दासी का,
वीरानियों का अंजाम 
नज़र आता है।
भीड़ और बाढ़ की स्थिति
एक ही सी होती है।
दोनों का कोई नाम नहीं,
किस लहर ने आघात किया,
इसका कोई साक्षी नहीं,
दोनों ले डुबते है।शहर, गांव को
मुखौटा लगाकर, भीड़ और बाढ़ का।
क्योंकि भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता,
बाढ़ की कोई शक्ल नहीं होती।।
                                    राजेश्री गुप्ता