बुधवार, 29 अप्रैल 2020

घर

कितने जतन कर मैंने घर बनाया
उसी घर का हर एक कोना सजाया
महंगें से महंगा सामान भी मंगवाया
किंतु विडंबना देखो
जिस घर को बनाने के लिए 
पल-पल मरती रही मैं
उसी घर में निरंतर रहना
दुश्वार हो गया है।
मानव मन घर से ज्यादा
बाहर भटकने को आतुर हो गया
वहीं घर जो मैंने
इतने परिश्रम से बनाया
मुझे रास नहीं आ रहा है
न जाने क्यों ये मन
बाहर गली - चौबारे ढूंढ रहा है
यही विडंबना है मानव मन की
नासमझ मन जान ही नहीं पाता
उसे बंधन नहीं स्वतंत्रता चाहिए
वहीं स्वतंत्रता जो उसे
घर से बाहर निकल कर
प्राप्त होती है।
                    राजेश्री गुप्ता

मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

चेहरा

भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता,
बाढ़ की कोई शक्ल नहीं होती।
भीड़ और बाढ़ दोनों का मंजर
अक्सर नजर आता है 
उनके गुजरने के बाद
उनके प्रवाह में सब 
सब ढह जाता है
खिलखिलाता उपवन
श्मशान बना जाता है
सब तरफ,उ‌दासी का,
वीरानियों का अंजाम 
नज़र आता है।
भीड़ और बाढ़ की स्थिति
एक ही सी होती है।
दोनों का कोई नाम नहीं,
किस लहर ने आघात किया,
इसका कोई साक्षी नहीं,
दोनों ले डुबते है।शहर, गांव को
मुखौटा लगाकर, भीड़ और बाढ़ का।
क्योंकि भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता,
बाढ़ की कोई शक्ल नहीं होती।।
                                    राजेश्री गुप्ता