सोमवार, 22 जून 2020

दुनिया

दुनिया


ये दुनिया है,

हर बात पर टोकती है।

बाप गधे पर बैठे,

या बेटा।

इन्हें हर बात में ऐब नजर आता है।

दुनिया का काम ही है,

लोगों पर नजर रखना।

कुछ तो ऐसे शागिर्द है,

डफली खूब बजाते हैं,

राग मधुर गाते हैं,

सबके जीवन में ताका- झांकी करना,

उसका- इससे, इसका- उससे,

बस यही है काम- धंधा।

आता है इन्हें, बहस- बाजी भी करना।

तू- तू, मैं- मैं कर, अपनी जंग जीतना।

किसी को भी नहीं बख्शते,

सभी को अपना पैबंद समझते।

लोग भी इनकी बातों में आ जाते,

ये चाशनी जो है टपकाते।

इनके पास है एक जादुई दूरबीन,

दूर तक देख पाते हैं।

आज तक मेरे जीवन में क्या नहीं हुआ,

यह मैं नहीं समझ पाई।

किंतु यह देख पाते हैं,

देख ही नहीं, समझ भी पाते हैं।

हमदर्दी इनको सभी से खूब होती है।

सोचती हूं, क्या यह नेता बनना चाहते हैं ?

राजनीति करना चाहते हैं ?

तब पता चला,

राजनीति तो सब ओर है।

यह बड़ी राजनीति नहीं करते,

इसलिए छोटी-छोटी करना चाहते हैं।

क्या कहूं इनसे,

कुछ समझ नहीं पाती।

आज तो हर तरफ,

सिर्फ गिद्ध ही देख पाती हूं।

जो मौकापरस्त होते हैं।

जो शव ढूंढते हैं।

ताकि नोच- नोच कर,

उसका ढांचा ही बिगाड़ दे।

दुनिया ऐसी ही है मतलबी, स्वार्थी।

सब अपना स्वार्थ साथ रहे।

ऐसे में कैसे कोई, अपनी व्यथा,

अपनों से कैसे कहें।

                            राजेश्री गुप्ता

शनिवार, 20 जून 2020

गुरु पूर्णिमा

गुरु पूर्णिमा

गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरा,
गुरु साक्षात परब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः।

गुरु पूर्णिमा का पर्व हर वर्ष आषाढ़ माह की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। यह पर्व भारत के पौराणिक इतिहास के महान संत ऋषि वेदव्यास की याद में मनाया जाता है। आज का दिन गुरु के प्रति श्रद्धा एवं समर्पण का पर्व है।

गुरु शब्द का अभिप्राय है अंधेरे से उजाले की ओर ले जाने वाला। गु का अर्थ अंधकार और रू का अर्थ मिटाने वाला। जो अपने सदुपदेशों के माध्यम से शिष्य के अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट कर देता है, वह गुरु है। गुरु सर्वेश्वर का साक्षात्कार करवाकर शिष्य को जन्म- मरण के बंधन से मुक्त कर देता है। अतः संसार में गुरु का स्थान विशेष महत्व का है। रामचरितमानस के आरंभ में गोस्वामी तुलसीदास जी ने गुरु को आदि गुरु सदाशिव का स्थान दिया है।

भोलेनाथ से जब माता पार्वती ने अपनी संतानों के हित के लिए प्रश्न पूछा कि ब्रह्म कौन है ? तब भोलेनाथ ने उत्तर देते हुए कहा गुरु के अतिरिक्त कोई ब्रह्म नहीं है। यही सत्य है।
गुरु शिक्षा प्रणाली के आधार स्तंभ माने जाते हैं। छात्र के शारीरिक एवं मानसिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
गुरु संस्कृति के पोषक है,
वे ही ज्ञान प्रदाता है,
साक्षरता के अग्रदूत,
वे ही राष्ट्र- निर्माता है।
भारतीय संस्कृति की गौरवशाली परंपरा रही है। गुरु रामदास जैसा गुरु, जिसने शिवाजी को छत्रपति शिवाजी बनाया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस जैसा गुरु, जिसने नरेंद्र नाथ को, स्वामी विवेकानंद बनाया। स्वामी बिरजानंद जैसा गुरु, जिसने दयानंद को, महर्षि दयानंद बना दिया।
अतः हम यही कह सकते हैं कि
गुरु- गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविंद दियो बताए।।


विज्ञापन युग

विज्ञापन युग
लाइफ बाॅय है जहां तंदुरुस्ती है वहां,
निरमा निरमा निरमा वाशिंग पाउडर निरमा
थोड़ा सा पाउडर और झाग ढेर सारा आदि।
विज्ञापन दैनिक जीवन में छोटे से लेकर बड़े तक प्रभाव डालने वाला सशक्त माध्यम बन गया है। विज्ञापन के द्वारा विभिन्न कंपनियां अपने-अपने वस्तुओं की खपत बड़ी ही धूमधाम से कर रही है। पहले विज्ञापन टीवी या सिनेमाघरों में स्लाइड्स पर एक सूचना के रूप में दिखाया जाता था। जैसे-जैसे समय बदला विज्ञापन ने भी अपना रूप बदल लिया है। आकर्षक चित्रों के अलावा प्रभावी संवाद शैली व दोनों को मिलाकर विज्ञापन बनाया जाता है। विज्ञापन जितना प्रभावशाली होता है, वस्तु की खपत उतनी ही तेज होती है। विज्ञापन की प्रभावोत्पादकता इतनी है कि हम सर्फ की ललिता जी को कभी भूल ही नहीं सकते और ना ही भूल सकते हैं कि बूस्ट इज द सीक्रेट ऑफ माय एनर्जी।
विज्ञापन ने किया कमाल,
जिंदगी में हमारे भर दी रफ्तार।
सचमुच विज्ञापन छा गया है, हम पर, हमारी सोच पर, हमारी मानसिकता पर और क्यों ना छाए ? हम भी तो विज्ञापन युग में ही जी रहे हैं, सांस ले रहे हैं। विज्ञापन के द्वारा ही हमें पता चलता है कि लाइव बॉय के अलावा भी संतूर, लक्स, डेटॉल,सेवलाॅन आदि और भी साबुन है। वैसे ही टूथपेस्ट या बिस्किट आदि के बारे में भी हमें पता चलता है कि विभिन्न कंपनियों के द्वारा विभिन्न वस्तुएं बाजार में उपलब्ध है। कई बार समाचार पत्रों-पत्रिकाओं मे भी वस्तुओं के विज्ञापन में उसके उत्पादन से संबंधित कई बातें छपी होती है। जिससे आम व्यक्ति को वस्तु के बारे में बहुत सी जानकारी मिल जाती है। इतना ही नहीं कौन- सी वस्तु, किस जगह, कितनी सस्ती मिलेगी, यह बात भी हमें विज्ञापनों के द्वारा पता चलती है। जैसे- बिग बाजार, डी- मार्ट आदि का विज्ञापन।
विज्ञापन ने दुनिया रोशन कर दी,
हर व्यक्ति की मुश्किल आसान कर दी।
विज्ञापन ही हमें बताता है कि कौन- सी ब्रांड की कौन- सी वस्तु सस्ती है और कौन सी महंगी। तब हम अपनी रूचि के आधार पर वस्तुएं खरीद सकते हैं।
विज्ञापन ही बाजार जगत में हलचल पैदा कर देता है। वस्तु की मांग और पूर्ति के संदर्भ में विज्ञापन भी अपनी अहम भूमिका निभाता है।
उत्पादन को बाजार तक लाते हैं विज्ञापन,
उसकी खपत को बढ़ाता है विज्ञापन।
आज विज्ञापन का दौर है। ऐसे में विज्ञापन के द्वारा कई लोग दिशा भ्रमित भी होते हैं। उदाहरण लक्स साबुन का विज्ञापन देखकर कई लड़कियां खुद को ऐश्वर्या या प्रियंका समझने लगती है।गोरेपन की क्रीम का विज्ञापन देखकर लोग उसे खरीदते हैं और खुद को ठगा पाते हैं। विज्ञापन में वस्तुओं की इतनी तारीफ होती है कि ग्राहक सोचता है कि वह क्या खरीदें और क्या ना खरीदे। फल स्वरूप वह भ्रम में होता है।
विज्ञापन की चकाचौंध के, वश में सारा संसार,
भांति भांति के विज्ञापनों से, चलता है संसार।
छोटे बच्चे तो विज्ञापन देखकर उसी वस्तु को खरीदने की जिद करने लगते हैं। विवश माता- पिता वह वस्तु लेने को बेबस हो जाते हैं। टीवी में तो कार्यक्रम कम और विज्ञापन अधिक ही दिखाई देता है शायद इसीलिए हमें कविताएं कम और विज्ञापन ज्यादा याद होने लगते हैं। चर्चित हस्तियों को लेकर विज्ञापन दिखाए जाते हैं जिससे बच्चे ही नहीं बड़े भी यही सोचते हैं कि मेरा पसंदीदा अभिनेता यदि इस ब्रांड की वस्तुएं खरीदता है या उपयोग में लेता है तो मैं भी यही वस्तु का उपयोग करूंगा।
मैं जानती हूं हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। फिर भी आधुनिक जीवन की इस यांत्रिक परिस्थितियों में विज्ञापन जरूरी हो गया है।
विज्ञापन युग की महिमा अपार, 
छोटे से बड़े तक सबको दिया तार।

योग

                       योग
'योगी बनो पवित्र बनो'
भारत की धरती पर बड़े-बड़े ऋषि- मुनि, योगियों ने जन्म लिया है और हमें ज्ञान की ऐसी संपदा विरासत में दी है, जिसे अनंत काल तक हम न सिर्फ संजोकर रख सकते हैं अपितु उसका प्रयोग अपने दैनिक जीवन में करके अपने जीवन को न जाने कितने संकटों से मुक्ति भी दिला सकते हैं। योग, वह विद्या है, जिसका उपयोग आज सारे संसार में हो रहा है।
          
वर्तमान समय में कृषि, उद्योग, परिवहन, चिकित्सा आदि क्षेत्रों में विज्ञान की प्रगति ने हमें उपभोग की वस्तुएं और सुविधाएं प्रदान की है जिससे भौतिक स्तर पर मानव जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन आया है परंतु इस प्रगति ने हमें भीतर से खोखला कर दिया है। प्रकृति से बहुत अलग कर दिया है, संपूर्ण जीवन में कृत्रिमता आ गई है, यही कारण है आज सभी मानसिक एवं भावनात्मक तनाव से भरा जीवन व्यतीत कर रहे हैं। नशीली दवाओं का शिकंजा महामारी के रूप में हम पर कसता जा रहा है। फल स्वरूप नैतिक पतन भी उतनी ही तेजी से हो रहा है। देश के बच्चे और बड़े सभी मानसिक तनाव के कारण अपनी क्षमता को नष्ट कर रहे हैं। विद्यार्थी पढ़ नहीं पाते, अशांत और चंचल रहने तथा कुंठाओं से ग्रस्त जीवन होने के कारण उनकी स्मरण शक्ति पर असर पड़ रहा है, इस तनाव से निजात पाने का सीधा उपाय है-योग।

"योग है स्वास्थ्य के लिए लाभकारी,
योग रोग मुक्त जीवन के लिए गुणकारी"
योग संयमित एवं निरंतर निष्ठा के साथ दीर्घकाल तक चलने वाली क्रिया है, जिससे आत्मा का परमात्मा से मेल हो जाता है । ईसा से लगभग 2000 वर्ष पूर्व पतंजलि मुनि ने विस्मृत प्रायः प्राचीन वेद मूलक विद्या को लोकानुग्रह की अभिलाषा से पुनरुद्धार किया। हमारा मन राग- द्वेष के कारण बहुत उद्वेलित रहता है अतः चित्त को शांत करने पर ही आत्मा अपने स्वयं के स्वरूप को पहचान पाती है, जिसे आत्म साक्षात्कार कहा जाता है।
पतंजलि मुनि ने चित्त की वृत्तियों को रोकना भी योग का स्वरूप बताया है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, और समाधि ये योग के आठ अंग है।
समाज में समरसता बनाए रखने के लिए सत्य, अहिंसा, ब्रम्हचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह का कड़ाई से पालन करने के लिए है यह।
व्यक्ति के जीवन को सजीव, समर्थ और परोपकारी बनाने के लिए तथा संतोष, तप, स्वास्थ्य एवं ईश्वर के गुणों को समाहित करने से संबंधित है नियम।
यम और नियम से बंद कर चलता हुआ साधक योग मार्ग से कभी विचलित नहीं होता। प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ कृति इस मनुष्य शरीर को योग द्वारा विकसित किया जा सकता है। मनुष्य परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ पुत्र है अतः उसमें परमात्मा की सभी तेजोमय शक्तियां बीज रूपों में निहित है। आमतौर पर वही शक्तियां काम आती है, जिन्हें हम दैनिक जीवन में प्रयोग में लाते हैं। शेष प्रसुप्त स्थिति में तब तक प्रतीक्षा करती रहती है, जब तक कोई उन्हें यत्न पूर्वक जगाने की चेष्टा न करें। इन प्रसुप्त शक्तियों को योग द्वारा जगाकर मनुष्य परमात्मा के समान शक्तिशाली व आनंद स्वरूप बन सकता है।

प्राचीन समय से ही योग-साधना से अद्भुत शारीरिक क्षमता उत्पन्न की जाती रही है। हमारे पुराणों में भीम, दुर्योधन, कुंभकरण, हनुमान आदि के सुदृढ़ शरीर और वज्र समान काया के अनेक प्रसंग भरे पड़े हैं।

जिस व्यक्ति का मन स्वस्थ हो, वह शारीरिक कष्ट से सदैव दूर रहता है। मानसिक तनाव की स्थिति में वह व्यक्ति बात- बात में क्रोधित हो उठता है, थकावट महसूस करता है तथा उसके स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ जाता है।

योग में मानसिक तनाव दूर करने के सरल उपाय है श्वासन, योग निद्रा तथा प्राणायामो में नाड़ी शोधन,दीर्घ श्वास-प्रश्वास, शीतली, कपालभाति, भ्रामरी इत्यादि। योग द्वारा मानव चिंता रहित रहता है। सबसे अच्छी बात है अपनी आवश्यकताओं को सीमित कर जो भी उपलब्ध हो उसी पर संतोष करने का नजरिया बना लेना। ऐसी आनंदमयी स्थिति योग द्वारा ही संभव है।
अत:सुखमय जीवन के लिए योग करना जरूरी है तथा यह कार्य 10 से 15 मिनट हर रोज किया जा सकता है।
स्वयं को बदलो जग बदलेगा,
योग से सुखमय जीवन होगा।
योग एक सुखद एवं शांतिमय जीवन जीने की कला है, जिसके निरंतर अभ्यास से शरीर स्वस्थ तथा निरोगी रहता है, मन शांत रहता है। बुद्धि तीक्ष्ण  होती है। योग से ही हमारे अंदर विनम्रता, उदारता, मानवता जैसे मानवीय सद्गुणों की उत्पत्ति होती है, जो एक अच्छे चरित्र निर्माण में सहायक होती है।
विद्वानों ने भी कहा है--"स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास होता है।"
जनमानस में योग के प्रति चेतना जागृत करने के लिए तथा बृहद समाज को अवगत कराने के लिए जिला, प्रांतीय तथा राष्ट्रीय स्तर पर योग शिविरों का आयोजन होता है। हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने भी योग के गुणों को देखते हुए योग को अपनाने की सलाह दी है। २१जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस घोषित किया गया है। जिसमें ना केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी योग शिक्षा की उपयोगिता समझकर इसे अपनाने पर बल दिया गया है।
योग गुरु बाबा रामदेव जी के सफल प्रयास स्वरूप योग शिक्षा का प्रचार- प्रसार संपूर्ण विश्व भर में किया जा रहा है।
"योग है स्वास्थ्य के लिए क्रांति,
नियमित योग से जीवन में हो सुख शांति।"
योग जहां एक ओर हमें स्वस्थ तथा निरोगी बनाता है, वही दूसरी ओर उससे हमारे भीतर सात्विक आहार, सात्विक आचार- विचार, परस्पर प्रेम, अध्यात्म आदि गुणों का समावेश होता है। निरंतर योग साधना से सभी की अपने- अपने कर्म क्षेत्र में कार्यक्षमता बढ़ जाती है। योग बहुआयामी गुणों से युक्त होते हुए भी उसके प्रति समाज के युवा वर्ग की निष्ठा का अभाव खलता है। युवा वर्ग योग की महत्ता से अनभिज्ञ है। विद्वानों का कथन है कि किसी रोग की रोकथाम करना उसके उपचार से बहुत अच्छा है। अतः वर्तमान समय में युवा वर्ग को योग को अपनाकर जीवन की समूल व्याधि को नष्ट करना चाहिए।
"सुबह या शाम कभी भी कीजिए योग,
आपके जीवन में कभी ना आए रोग।"

हमें योग को अपनी दिनचर्या में जोड़कर उसे जीवन का अभिन्न अंग बनाना चाहिए। ताकि हम अपने जीवन को सुंदर, सफल, सुमधुर और स्वस्थ बना सके। इस प्रकार भारतीय योग के लोक कल्याण की भावना से ओतप्रोत महायज्ञ में हम सभी एक शांतिमय समाज की रचना करें जो अंततः लोक कल्याण में सहायक सिद्ध हो सके।
"स्वस्थ जीवन जीना जिंदगी की जमा पूंजी,
योग करना रोग मुक्त जीवन की कुंजी।"

बुधवार, 3 जून 2020

सांस्कृतिक संकट

सांस्कृतिक संकट
"युग- युग के संचित संस्कार, ऋषि मुनियों के उच्च विचार,
धीरों- वीरों के व्यवहार, है निज, संस्कृति के श्रृंगार।"
संस्कृत कोषो के अनुसार संस्कृति शब्द का अर्थ है सजाना, सवारना ,अलंकृत करना इसलिए कालांतर में इसके अर्थ का विस्तार अच्छे कर्मों के लिए होने लगा।
जैनेंद्र कुमार के अनुसार संस्कृति मानव जाति की वह रचना है जो एक को दूसरे के मेल में लाकर उनमें सौहार्द की भावना पैदा करती है। वह जोड़ती है और मिलाती है। उसका परिणाम व्यक्ति में आत्मोपयता की भावना का विकास और समाज का सर्वोदय है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि अनुभव और अभ्यास से मनुष्य की बुद्धि में अर्थात सोचने- विचारने में जैसे-जैसे विकास होता है, वैसे- वैसे उसकी संस्कृति विकसित होती है। मनुष्य में निरभिमानता,औदार्य एवं माधुर्य आदि गुणों को उत्पन्न करने वाली संस्कृति ही है। संस्कृति का क्षेत्र यहीं तक सीमित नहीं है अपितु हमारी बोलचाल की भाषा, उठने बैठने का ढंग, जीवन के उपकरण, खानपान ,आसन, आवास, रीति रिवाज आदि का परिष्कार करके उसमें लालित्य लाने का श्रेय संस्कृति को ही जाता है।
सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि तत्व भारतीय संस्कृति में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। अहिंसा व सहिष्णुता तो हमारी आत्मा है। किसी भी प्राणी को मनसा, वाचा, कर्मणा कोई दुख ना हो सभी समान व प्रसन्न जीवन यापन करें, यही हमारी मुख्य भावना रही है। गांधी जी ने अहिंसा के बल पर ही हमारे देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराया था। आत्मसंयत, तप व त्याग की भावना, गुरुजन व मित्र पर आस्था, उदारता आदि भावों की झलक भी हमें सिर्फ भारतीय संस्कृति में ही देखने को मिलती है। ज्ञान व शिक्षा आरंभ से ही भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग रहे हैं। ज्ञानियों ऋषि-मुनियों का समाज में बहुत ही आदर व सत्कार किया जाता है। विरोधी की ज्ञान पूर्ण बातों को भी पर्याप्त महत्व दिया जाता है। यही नहीं सभी के साथ प्रेम ,कृतज्ञता, अभिवादन करना आदि हमारी संस्कृति को और भी विकसित करता है।
सब भारतीय एक है। न कोई हिंदू है, न कोई मुसलमान और नहीं कोई इसाई। यदि मुसलमान स्वयं को भारतीय नहीं मानते तो उपनिषदों का अनुवाद फारसी में ना करते और नाही यूनान के तत्त्वचिंतकों को बारह मिहिर ऋषि कहते। यह भारतीय मन ही है,जो हिंदू को जायसी के पद्मावत का रसास्वाद कराता है और मुसलमान को कृष्ण के सौंदर्य की ओर आकृष्ट करता है। माइकल मधुसूदन दत्त से विरहिणी व्रजांगना लिखाता है।
किंतु वर्तमान आधुनिक प्रणाली में हमने राष्ट्रीय संस्कृति में रचे बसे आदर्शों व कर्तव्य को भुला दिया है। प्रत्येक राज्य, प्रांत, जाति, धर्म अपनी- अपनी संस्कृति को ऊंचा उठाने में लगे हैं किंतु संस्कृति के पीछे व्याप्त एक्य के भाव को हमने तिलांजलि दे दी है। हमारे राजनेता संस्कृति के अहम अंग धार्मिक भावनाओं को लेकर अपनी राजनैतिक रोटियां सेक रहे हैं। धर्म के नाम पर लोगों से लोगों को लड़वाकर भाईचारे के बीच विषमता के बीज बो रहे हैं। महज वोटों के लिए धर्म को राजनीति का हथकंडा बना रहे हैं।
यही नहीं अपने जीवन स्तर को ऊंचा उठाने की वृत्ति ने हमारा वैचारिक पतन कर दिया है। पश्चिमी देशों का अंधाधुंध अनुकरण ही हमें हमारी संस्कृति से विरक्त करता जा रहा है। बड़ों के आदर, सम्मान की भावना को भुलाकर आज हमने अपने आप को छोटा बना दिया है। 'पर' के बारे में देखने की बात तो दूर हमने 'स्व' के कारण 'पर' के बारे में सोचना भी बंद कर दिया है। हमारी संस्कृति के पीछे मूल भाव है, हमारी एकता। किंतु हमने उसी एकता को भुलाकर बिखराव व अनेकता को अपना लिया है। ऐसे में आवश्यक है की हम एकता का पाठ चीटियों से सीखें।
वर्तमान परिस्थिति में मानव जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार अनैतिकता, अराजकता, घूसखोरी आदि बुराइयों को समूल जड़ से समाप्त करने के लिए हमें अपनी संस्कृति के अहम अंगों का उपयोग करना अति आवश्यक हो गया है।
हम अक्सर अखबारों में पढ़ते हैं कि भारतीय संस्कृति सर्वोज्ञ है कभी रूस, भारतीय संस्कृति की प्रशंसा करता है ,तो कभी अमेरिका और ब्रिटेन। किंतु भारतीय मन ही भारतीय संस्कृति को समझ नहीं पा रहा है। खानपान, रहन- सहन आदि सभी में हम पश्चिमी सभ्यता, संस्कृति को अपनाकर अपना स्तर नीचे गिरा रहे हैं। वह भारतीय संस्कृति जिसे विदेशों ने देखा, परखा, समझा, उसे अपनाया भी, किंतु भारत में ही वह हो गई है।
 संगीत,नृत्य, खान- पान, पोशाक, रहन- सहन आदि सभी बातों में हम पश्चिमी देशों की नकल कर रहे हैं।जिससे भारतीय संस्कृति अपनी जड़ों को समाप्त करती हुई सी जान पड़ती है। जो कि हमारे लिए किसी भयानक संकट से कम नहीं।
स्वराज्य के लिए जैसे रचनात्मक कार्य किया गया। वैसे ही संस्कृति के लिए भी कुछ रचनात्मक कार्य करने की आवश्यकता है। संस्कृति की लंबी- चौड़ी बातें करने की बजाय यदि मानव-मात्र अपने स्वभाव को परिष्कृत करने के लिए दैनिक जीवन में सुरुचि का संचार अथवा संस्कारिता का उन्मेष करे तो संस्कृति स्वयं सजीव हो जाएगी। संस्कृति को देव प्रतिमाओं की तरह केवल पाषाण पूजा नहीं देनी है। उसे जीवन में जीवित करना है। उसे जन संस्कृति बना देना है। तभी संस्कृति पर छाया संकट मिट सकेगा।
                                          राजेश्री गुप्ता