बुधवार, 3 जून 2020

सांस्कृतिक संकट

सांस्कृतिक संकट
"युग- युग के संचित संस्कार, ऋषि मुनियों के उच्च विचार,
धीरों- वीरों के व्यवहार, है निज, संस्कृति के श्रृंगार।"
संस्कृत कोषो के अनुसार संस्कृति शब्द का अर्थ है सजाना, सवारना ,अलंकृत करना इसलिए कालांतर में इसके अर्थ का विस्तार अच्छे कर्मों के लिए होने लगा।
जैनेंद्र कुमार के अनुसार संस्कृति मानव जाति की वह रचना है जो एक को दूसरे के मेल में लाकर उनमें सौहार्द की भावना पैदा करती है। वह जोड़ती है और मिलाती है। उसका परिणाम व्यक्ति में आत्मोपयता की भावना का विकास और समाज का सर्वोदय है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि अनुभव और अभ्यास से मनुष्य की बुद्धि में अर्थात सोचने- विचारने में जैसे-जैसे विकास होता है, वैसे- वैसे उसकी संस्कृति विकसित होती है। मनुष्य में निरभिमानता,औदार्य एवं माधुर्य आदि गुणों को उत्पन्न करने वाली संस्कृति ही है। संस्कृति का क्षेत्र यहीं तक सीमित नहीं है अपितु हमारी बोलचाल की भाषा, उठने बैठने का ढंग, जीवन के उपकरण, खानपान ,आसन, आवास, रीति रिवाज आदि का परिष्कार करके उसमें लालित्य लाने का श्रेय संस्कृति को ही जाता है।
सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि तत्व भारतीय संस्कृति में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। अहिंसा व सहिष्णुता तो हमारी आत्मा है। किसी भी प्राणी को मनसा, वाचा, कर्मणा कोई दुख ना हो सभी समान व प्रसन्न जीवन यापन करें, यही हमारी मुख्य भावना रही है। गांधी जी ने अहिंसा के बल पर ही हमारे देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराया था। आत्मसंयत, तप व त्याग की भावना, गुरुजन व मित्र पर आस्था, उदारता आदि भावों की झलक भी हमें सिर्फ भारतीय संस्कृति में ही देखने को मिलती है। ज्ञान व शिक्षा आरंभ से ही भारतीय संस्कृति का एक अभिन्न अंग रहे हैं। ज्ञानियों ऋषि-मुनियों का समाज में बहुत ही आदर व सत्कार किया जाता है। विरोधी की ज्ञान पूर्ण बातों को भी पर्याप्त महत्व दिया जाता है। यही नहीं सभी के साथ प्रेम ,कृतज्ञता, अभिवादन करना आदि हमारी संस्कृति को और भी विकसित करता है।
सब भारतीय एक है। न कोई हिंदू है, न कोई मुसलमान और नहीं कोई इसाई। यदि मुसलमान स्वयं को भारतीय नहीं मानते तो उपनिषदों का अनुवाद फारसी में ना करते और नाही यूनान के तत्त्वचिंतकों को बारह मिहिर ऋषि कहते। यह भारतीय मन ही है,जो हिंदू को जायसी के पद्मावत का रसास्वाद कराता है और मुसलमान को कृष्ण के सौंदर्य की ओर आकृष्ट करता है। माइकल मधुसूदन दत्त से विरहिणी व्रजांगना लिखाता है।
किंतु वर्तमान आधुनिक प्रणाली में हमने राष्ट्रीय संस्कृति में रचे बसे आदर्शों व कर्तव्य को भुला दिया है। प्रत्येक राज्य, प्रांत, जाति, धर्म अपनी- अपनी संस्कृति को ऊंचा उठाने में लगे हैं किंतु संस्कृति के पीछे व्याप्त एक्य के भाव को हमने तिलांजलि दे दी है। हमारे राजनेता संस्कृति के अहम अंग धार्मिक भावनाओं को लेकर अपनी राजनैतिक रोटियां सेक रहे हैं। धर्म के नाम पर लोगों से लोगों को लड़वाकर भाईचारे के बीच विषमता के बीज बो रहे हैं। महज वोटों के लिए धर्म को राजनीति का हथकंडा बना रहे हैं।
यही नहीं अपने जीवन स्तर को ऊंचा उठाने की वृत्ति ने हमारा वैचारिक पतन कर दिया है। पश्चिमी देशों का अंधाधुंध अनुकरण ही हमें हमारी संस्कृति से विरक्त करता जा रहा है। बड़ों के आदर, सम्मान की भावना को भुलाकर आज हमने अपने आप को छोटा बना दिया है। 'पर' के बारे में देखने की बात तो दूर हमने 'स्व' के कारण 'पर' के बारे में सोचना भी बंद कर दिया है। हमारी संस्कृति के पीछे मूल भाव है, हमारी एकता। किंतु हमने उसी एकता को भुलाकर बिखराव व अनेकता को अपना लिया है। ऐसे में आवश्यक है की हम एकता का पाठ चीटियों से सीखें।
वर्तमान परिस्थिति में मानव जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार अनैतिकता, अराजकता, घूसखोरी आदि बुराइयों को समूल जड़ से समाप्त करने के लिए हमें अपनी संस्कृति के अहम अंगों का उपयोग करना अति आवश्यक हो गया है।
हम अक्सर अखबारों में पढ़ते हैं कि भारतीय संस्कृति सर्वोज्ञ है कभी रूस, भारतीय संस्कृति की प्रशंसा करता है ,तो कभी अमेरिका और ब्रिटेन। किंतु भारतीय मन ही भारतीय संस्कृति को समझ नहीं पा रहा है। खानपान, रहन- सहन आदि सभी में हम पश्चिमी सभ्यता, संस्कृति को अपनाकर अपना स्तर नीचे गिरा रहे हैं। वह भारतीय संस्कृति जिसे विदेशों ने देखा, परखा, समझा, उसे अपनाया भी, किंतु भारत में ही वह हो गई है।
 संगीत,नृत्य, खान- पान, पोशाक, रहन- सहन आदि सभी बातों में हम पश्चिमी देशों की नकल कर रहे हैं।जिससे भारतीय संस्कृति अपनी जड़ों को समाप्त करती हुई सी जान पड़ती है। जो कि हमारे लिए किसी भयानक संकट से कम नहीं।
स्वराज्य के लिए जैसे रचनात्मक कार्य किया गया। वैसे ही संस्कृति के लिए भी कुछ रचनात्मक कार्य करने की आवश्यकता है। संस्कृति की लंबी- चौड़ी बातें करने की बजाय यदि मानव-मात्र अपने स्वभाव को परिष्कृत करने के लिए दैनिक जीवन में सुरुचि का संचार अथवा संस्कारिता का उन्मेष करे तो संस्कृति स्वयं सजीव हो जाएगी। संस्कृति को देव प्रतिमाओं की तरह केवल पाषाण पूजा नहीं देनी है। उसे जीवन में जीवित करना है। उसे जन संस्कृति बना देना है। तभी संस्कृति पर छाया संकट मिट सकेगा।
                                          राजेश्री गुप्ता

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