मैं
मैं कौन हूं ?
यह मैं ना जानू ।
यह मैं क्या है ?
यह मैं ना जानू ।
जीवन का पल, कहां खत्म होगा।
उसमें मैं होगा,
या ना होगा ।
मैं है या नहीं है ,
यह मुझमें है ,
या उसमें है।
लेकिन यह मैं है बड़ा अभिमानी,
इसके पीछे पड़ कर दुनिया है हारी ,
रावण और कंस है इसकी दास्तां,
कवियों ने कही है इसकी खलिस्ता।
हर शहर पर ,हर डगर पर,
यह मैं है ।
हर इंसान में दुबका हुआ,
किसी कोने में सिकुड़ा हुआ,
कहीं कहीं पर फैला हुआ,
यह मैं है ।
इसकी दास्तां हर इक मुखाफित है।
रात हो या दिन हो ,
हर पल का चित है,
ऐसा यह मैं है ,
ऐसा यह मैं है।
ऐसा यह मैं है।।
राजेश्री गुप्ता