शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

श्री कृष्ण लीला

श्री कृष्ण लीला

बड़ा नटखट है रे, कृष्ण कन्हैया,
का करे यशोदा मैया।
नटखट, शरारती, माखन- चोर,रास -रसैया आदि ऐसे अनेकों नाम कृष्ण को याद करते ही हमारे जहन में उतर जाते हैं। मुरली बजैया कान्हा की बाल लीलाओं का वर्णन सूरदास ने बड़े ही मनोहारी ढंग से किया है।
मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो येे पद हो या मैया मोहे दाऊ बहुत खिझायो ये पद हो।
हर जगह कान्हा की बाल लीलाओं का वर्णन सजीव रूप में चित्रित मिलता है।
श्री कृष्ण ने देवकी और वसुदेव की आठवीं संतान के रूप में जन्म लिया। उनके जन्म लेने के समय कंस ने वासुदेव और देवकी को कारागृह में बंद किया था। श्री कृष्ण के जन्म लेते ही कंस के सारे पहरेदार सो गए। कारागृह के दरवाजे खुल गए। वसुदेव ने कृष्ण को एक टोकरी में रखकर नंद के घर ले गए। रास्ते में खूब बरसात हो रही थी। यमुना का पानी ऊपर बढ़ता ही जा रहा था मानो यमुना भी श्री कृष्ण का दर्शन करने को व्याकुल हो रही थी। यह कृष्ण का ही चमत्कार था कि उनके पैर का स्पर्श होते ही यमुना का पानी कम हो गया। वसुदेव ने कृष्ण को सही सलामत नंद के घर गोकुल में छोड़ दिया और वापस कारागृह में लौट आए।
यहां पर जैसे ही नंद की कन्या को अपना काल मानकर कंस ने मारना चाहा वह हाथ से छूटकर आसमान में लुप्त हो गई। योग माया के लुप्त होते ही आकाशवाणी हुई की कंस को मारने वाला गोकुल में पैदा हो चुका है। कंस को यह पता चलते ही कंस ने श्री कृष्ण को मारने के लिए एक के बाद एक साजिश रचनी शुरू कर दी।
पूतना नामक राक्षसिन को कंस ने कृष्ण को मारने के लिए भेजा। पूतना ने एक सुंदर स्त्री का रूप धरा और वह श्रीकृष्ण से खेलने के बहाने उसके घर गई। पूतना के स्तन में विष था। उसने जैसे ही कृष्ण को स्तनपान कराया। वैसे ही पूतना के प्राण छूट गए। कृष्ण ने खेल ही खेल में पूतना के प्राण हर लिए।
अपने मित्रों के संग गेंद से खेलते वक्त गेंद यमुना नदी में चली गई। वहां कालिया नाग ने डेरा जमा रखा था। कृष्ण पानी में कूदे और कालिया नाग को परास्त कर उसके फन के ऊपर बैठकर गेंद लेकर ऊपर आए।
यहां कंस ने भी हार नहीं मानी। वह एक के बाद दूसरे को कृष्ण का वध करने के लिए भेज ही देता था। कृष्ण उन असुरों को मारकर उनका उद्धार कर देते।
अघासुर, बकासुर ,तृणावत और न जाने कितने राक्षसों का वध कर कृष्ण ने उनका उद्धार किया। धरती को पापियों से मुक्त कर दिया।
यहीं पर कृष्ण की बाल लीलाओं का अंत नहीं होता। माखन चुराना, गैया चराना, रास रचाना, मुरली बजाना आदि अनेक लीलाओं के द्वारा कान्हा ने गोकुल के लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया। आज संपूर्ण जगत हरे रामा हरे कृष्णा की माला जप रहा है।
उनकी एक लीला जो बहुत प्रसिद्ध है वह है उनका मिट्टी खाना। एक बार यशोदा मां ने कृष्ण को मिट्टी खाने पर उन्हें मुंह खोलने को कहा। मुंह खोलने पर मां को उसमें संपूर्ण ब्रह्मांड के दर्शन हुए। कहते हैं वह देखकर मां अचेत होकर गिर पड़ी।
इसी प्रकार श्री कृष्ण ने एक बार इंद्र के कोपित हो जाने पर गोवर्धन पर्वत को एक उंगली पर उठाकर संपूर्ण ग्राम वासियों की रक्षा की थी।
गोकुल से दूध दही कंस की नगरी मथुरा में जाता था। श्रीकृष्ण को यह सही नहीं लगता था। वे सोचते यही दूध, दही खाकर यहां के लोग हृष्ठ- पुष्ट रहे इसलिए वे गोपीकाओं की नजरे चुराकर उनके घर से दूध दही उड़ाते। जिससे गोकुल का दूध, दही वहां के लोग ही इस्तेमाल कर सके।
हरि अनंत हरि कथा अनंता
श्री कृष्ण की बाल लीलाओं का अंत नहीं किया जा सकता। मनोहर ,सकल जगत का ताप हरने वाला, विश्व का सृष्टा केवल कृष्ण हीं हो सकता है।
ऐसे श्रीकृष्ण को मेरा शत-शत नमन।
       राजेश्री गुप्ता

गुरुवार, 6 अगस्त 2020

शहरी जीवन

शहरी जीवन
चंदन है इस देश की माटी,
तपोभूमि सब ग्राम है।
कहते हैं-भारत गांवों में निवास करता है। गांव इस देश की रीढ़ की हड्डी है और देश की खुशहाली हमारे गांवों की मुस्कुराहट पर निर्भर है। बेशक यह बात शत- प्रतिशत सच है, परंतु फिर भी गांव के लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। वे अपने गांव छोड़कर शहरों के आकर्षण की ओर खींचें जा रहे हैं।
हां ! हां ! भारत दुर्दशा न देखी जाए।
गांवों की शुद्ध आबोहवा शहरी लोगों को सदैव आकर्षित करती रहती है क्योंकि शहरों में बस, ट्रक, कार, दुपहियों और तिपहियों की इतनी भरमार है कि यहां का वायुमंडल अत्यधिक प्रदूषित हो गया है। शहरों में वायु प्रदूषण के अलावा ध्वनि प्रदूषण भी अत्यधिक है। इसके अतिरिक्त जल प्रदूषण भी है। गंदा पानी पीने के कारण शहर के अधिकांश लोग जल जनित बीमारियों जैसे बुखार, हैजा, दस्त, उल्टी आदि से हमेशा त्रस्त रहते हैं। ध्वनि प्रदूषण से शहरों में अधिकांश लोग बहरे हो गए हैं या कम सुनने लगे हैं और वायु प्रदूषण से लोगों को श्वास संबंधी बीमारियां हो गई हैं। यह सभी बीमारियां इन शहरों की ही देन है। फिर भी शहर में रहने का अपना आकर्षण बना हुआ है।
आज का शहर विचित्र, नवीन
धड़कता है हर पल,
चाहे रात हो या दिन।
शहरी जीवन प्रदूषण से बेहाल है, इसके बावजूद यहां की चमक दमक लोगों को अपनी ओर खींच रही है। यहां जीवन उपयोगी हर वस्तु सहज उपलब्ध हो जाती है। इसके अतिरिक्त शहरों में रोजगार के अवसर अधिक है इसलिए शहरों का अपना अलग ही आकर्षण है। हालांकि यहां पर लोग गांव की करो प्रेम और मेलजोल से नहीं रहते।
लोग संगमरमर हुए ,ह्रदय हुए इस्पात,
बर्फ हुई संवेदना, खत्म हुई सब बात।
जिस प्रकार गांव मे लोग एक-दूसरे की मदद के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। प्रतिदिन सुबह-शाम वे चौपाल पर एक दूसरे के हाल-चाल अवश्य पूछते हैं ,लेकिन शहरों में तो अधिकांशतः लोग अपने पड़ोसी का नाम तक नहीं जानते। सिर्फ अपने मतलब से मतलब रखते हैं ऐसा प्रतीत होता है जैसे सभी अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए वहां रह रहे हैं।
जहां भी जाता हूं ,वीरान नजर आता है ।
खून में डूबा हुआ ,हर मैदान नजर आता है।
हालांकि केंद्र सरकार गांव के उत्थान के लिए वहां पर हर प्रकार की सहूलियत और साधन उपलब्ध कराने के प्रयास कर रही है ,ताकि ग्रामीण लोग शहरों की तरफ पलायन न करें ।परंतु विकास की दर इतनी धीमी है कि अभी गांव में शहरो जैसा विकास होने में बीसीयों वर्ष लग जाएंगे।
गांव से शहर आने वाले लोग शहरों के आकर्षण के कारण यहां खिंचे चले आते हैं। शहरों की चमक दमक उन्हें यहां आने के लिए बाध्य करती है। फिल्म स्टार को देखने, उनकी झलक पाने के लिए, लोग आतुर होकर शहर की ओर चले आते हैं। यहां आकर उन्हें यहां की स्थिति का एहसास होता है। हालांकि शहरों में कोई भूखा नहीं सोता। खाना तो मिल ही जाता है। किंतु सोने के लिए कोई जगह नहीं मिलती। मजबूरन लोगों को फुटपाथ पर सोना पड़ता है। शहरों की दशा यहां की जनसंख्या के कारण बहुत ही खराब है। ट्रेनों में लोगों की भीड़ कम होने का नाम ही नहीं लेती है। इसी भीड़ के कारण कई लोगों को अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ता है।
शहरों में लोगों के पलायन से शहरों की दशा अत्यंत खराब हो गई है। दिल्ली शहर इसमें मुख्य है। यहां जनसंख्या अत्यधिक होने से ट्रैफिक प्रदूषण, बीमारियां आदि बहुत बढ़ रही है। इससे पहले कि यहां की हालत विस्फोटक हो जाए, सरकार को कुछ करना होगा।
यह है शहरी जीवन की दशा अथवा दुनिया। जिसे समय रहते सुधारना होगा।
जलते दीपक के प्रकाश में,
अपना जीवन- तिमिर हटाए,
उसकी ज्योतिर्मयी किरणों से,
अपने मन में ज्योति जगाएं।

खेत

खेत
आज राशन की लाइन में खड़े हुए,
ध्यान दुकान पर था लगा हुआ।
बेचैनी बढ़ रही थी,
धूप तेज और तेज हो रही थी।
माथे पर शिकन गहरा रही थी।
तभी राशन वाले ने कहा,
राशन खत्म हो गया।
आज भी कल की तरह,
खाली हाथ जाना होगा,
बच्चों को आज भी,
भूखा ही सो जाना होगा।
चिंता बेचैनी बढ़ रही थी,
अफसोस गहरा रहा था,
मैंने खेत क्यों बेच दिए,
हाय ! मैंने खेत क्यों बेच दिए।



संघर्ष

संघर्ष

यह शहरी जीवन है,
यांत्रिक गतिविधियां,
जहां तनिक भी विश्राम नहीं।
भीतर संघर्षों का कोलाहल,
बाहर अजीब सी शांति है।
भीतर वेदना प्रगाढ़,
बाहर स्मित मुस्कान है।
कुछ उखड़ा हुआ है,
कुछ टूटा हुआ है,
कुछ दरका हुआ है भीतर।
कुछ क्षण पूर्व था यहां,
विचारों का आतंक,
संघर्षों का कोलाहल,
मानसिक अशांति,
अब बिल्कुल सन्नाटा है।
मौन है, निस्तब्धता है,
संवेदनाओं का एहसास
बर्फ सा हो गया है।
मन तो केवल इस्पात है।

सोमवार, 22 जून 2020

दुनिया

दुनिया


ये दुनिया है,

हर बात पर टोकती है।

बाप गधे पर बैठे,

या बेटा।

इन्हें हर बात में ऐब नजर आता है।

दुनिया का काम ही है,

लोगों पर नजर रखना।

कुछ तो ऐसे शागिर्द है,

डफली खूब बजाते हैं,

राग मधुर गाते हैं,

सबके जीवन में ताका- झांकी करना,

उसका- इससे, इसका- उससे,

बस यही है काम- धंधा।

आता है इन्हें, बहस- बाजी भी करना।

तू- तू, मैं- मैं कर, अपनी जंग जीतना।

किसी को भी नहीं बख्शते,

सभी को अपना पैबंद समझते।

लोग भी इनकी बातों में आ जाते,

ये चाशनी जो है टपकाते।

इनके पास है एक जादुई दूरबीन,

दूर तक देख पाते हैं।

आज तक मेरे जीवन में क्या नहीं हुआ,

यह मैं नहीं समझ पाई।

किंतु यह देख पाते हैं,

देख ही नहीं, समझ भी पाते हैं।

हमदर्दी इनको सभी से खूब होती है।

सोचती हूं, क्या यह नेता बनना चाहते हैं ?

राजनीति करना चाहते हैं ?

तब पता चला,

राजनीति तो सब ओर है।

यह बड़ी राजनीति नहीं करते,

इसलिए छोटी-छोटी करना चाहते हैं।

क्या कहूं इनसे,

कुछ समझ नहीं पाती।

आज तो हर तरफ,

सिर्फ गिद्ध ही देख पाती हूं।

जो मौकापरस्त होते हैं।

जो शव ढूंढते हैं।

ताकि नोच- नोच कर,

उसका ढांचा ही बिगाड़ दे।

दुनिया ऐसी ही है मतलबी, स्वार्थी।

सब अपना स्वार्थ साथ रहे।

ऐसे में कैसे कोई, अपनी व्यथा,

अपनों से कैसे कहें।

                            राजेश्री गुप्ता

शनिवार, 20 जून 2020

गुरु पूर्णिमा

गुरु पूर्णिमा

गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरा,
गुरु साक्षात परब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः।

गुरु पूर्णिमा का पर्व हर वर्ष आषाढ़ माह की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। यह पर्व भारत के पौराणिक इतिहास के महान संत ऋषि वेदव्यास की याद में मनाया जाता है। आज का दिन गुरु के प्रति श्रद्धा एवं समर्पण का पर्व है।

गुरु शब्द का अभिप्राय है अंधेरे से उजाले की ओर ले जाने वाला। गु का अर्थ अंधकार और रू का अर्थ मिटाने वाला। जो अपने सदुपदेशों के माध्यम से शिष्य के अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट कर देता है, वह गुरु है। गुरु सर्वेश्वर का साक्षात्कार करवाकर शिष्य को जन्म- मरण के बंधन से मुक्त कर देता है। अतः संसार में गुरु का स्थान विशेष महत्व का है। रामचरितमानस के आरंभ में गोस्वामी तुलसीदास जी ने गुरु को आदि गुरु सदाशिव का स्थान दिया है।

भोलेनाथ से जब माता पार्वती ने अपनी संतानों के हित के लिए प्रश्न पूछा कि ब्रह्म कौन है ? तब भोलेनाथ ने उत्तर देते हुए कहा गुरु के अतिरिक्त कोई ब्रह्म नहीं है। यही सत्य है।
गुरु शिक्षा प्रणाली के आधार स्तंभ माने जाते हैं। छात्र के शारीरिक एवं मानसिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
गुरु संस्कृति के पोषक है,
वे ही ज्ञान प्रदाता है,
साक्षरता के अग्रदूत,
वे ही राष्ट्र- निर्माता है।
भारतीय संस्कृति की गौरवशाली परंपरा रही है। गुरु रामदास जैसा गुरु, जिसने शिवाजी को छत्रपति शिवाजी बनाया। स्वामी रामकृष्ण परमहंस जैसा गुरु, जिसने नरेंद्र नाथ को, स्वामी विवेकानंद बनाया। स्वामी बिरजानंद जैसा गुरु, जिसने दयानंद को, महर्षि दयानंद बना दिया।
अतः हम यही कह सकते हैं कि
गुरु- गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरु आपने, जिन गोविंद दियो बताए।।


विज्ञापन युग

विज्ञापन युग
लाइफ बाॅय है जहां तंदुरुस्ती है वहां,
निरमा निरमा निरमा वाशिंग पाउडर निरमा
थोड़ा सा पाउडर और झाग ढेर सारा आदि।
विज्ञापन दैनिक जीवन में छोटे से लेकर बड़े तक प्रभाव डालने वाला सशक्त माध्यम बन गया है। विज्ञापन के द्वारा विभिन्न कंपनियां अपने-अपने वस्तुओं की खपत बड़ी ही धूमधाम से कर रही है। पहले विज्ञापन टीवी या सिनेमाघरों में स्लाइड्स पर एक सूचना के रूप में दिखाया जाता था। जैसे-जैसे समय बदला विज्ञापन ने भी अपना रूप बदल लिया है। आकर्षक चित्रों के अलावा प्रभावी संवाद शैली व दोनों को मिलाकर विज्ञापन बनाया जाता है। विज्ञापन जितना प्रभावशाली होता है, वस्तु की खपत उतनी ही तेज होती है। विज्ञापन की प्रभावोत्पादकता इतनी है कि हम सर्फ की ललिता जी को कभी भूल ही नहीं सकते और ना ही भूल सकते हैं कि बूस्ट इज द सीक्रेट ऑफ माय एनर्जी।
विज्ञापन ने किया कमाल,
जिंदगी में हमारे भर दी रफ्तार।
सचमुच विज्ञापन छा गया है, हम पर, हमारी सोच पर, हमारी मानसिकता पर और क्यों ना छाए ? हम भी तो विज्ञापन युग में ही जी रहे हैं, सांस ले रहे हैं। विज्ञापन के द्वारा ही हमें पता चलता है कि लाइव बॉय के अलावा भी संतूर, लक्स, डेटॉल,सेवलाॅन आदि और भी साबुन है। वैसे ही टूथपेस्ट या बिस्किट आदि के बारे में भी हमें पता चलता है कि विभिन्न कंपनियों के द्वारा विभिन्न वस्तुएं बाजार में उपलब्ध है। कई बार समाचार पत्रों-पत्रिकाओं मे भी वस्तुओं के विज्ञापन में उसके उत्पादन से संबंधित कई बातें छपी होती है। जिससे आम व्यक्ति को वस्तु के बारे में बहुत सी जानकारी मिल जाती है। इतना ही नहीं कौन- सी वस्तु, किस जगह, कितनी सस्ती मिलेगी, यह बात भी हमें विज्ञापनों के द्वारा पता चलती है। जैसे- बिग बाजार, डी- मार्ट आदि का विज्ञापन।
विज्ञापन ने दुनिया रोशन कर दी,
हर व्यक्ति की मुश्किल आसान कर दी।
विज्ञापन ही हमें बताता है कि कौन- सी ब्रांड की कौन- सी वस्तु सस्ती है और कौन सी महंगी। तब हम अपनी रूचि के आधार पर वस्तुएं खरीद सकते हैं।
विज्ञापन ही बाजार जगत में हलचल पैदा कर देता है। वस्तु की मांग और पूर्ति के संदर्भ में विज्ञापन भी अपनी अहम भूमिका निभाता है।
उत्पादन को बाजार तक लाते हैं विज्ञापन,
उसकी खपत को बढ़ाता है विज्ञापन।
आज विज्ञापन का दौर है। ऐसे में विज्ञापन के द्वारा कई लोग दिशा भ्रमित भी होते हैं। उदाहरण लक्स साबुन का विज्ञापन देखकर कई लड़कियां खुद को ऐश्वर्या या प्रियंका समझने लगती है।गोरेपन की क्रीम का विज्ञापन देखकर लोग उसे खरीदते हैं और खुद को ठगा पाते हैं। विज्ञापन में वस्तुओं की इतनी तारीफ होती है कि ग्राहक सोचता है कि वह क्या खरीदें और क्या ना खरीदे। फल स्वरूप वह भ्रम में होता है।
विज्ञापन की चकाचौंध के, वश में सारा संसार,
भांति भांति के विज्ञापनों से, चलता है संसार।
छोटे बच्चे तो विज्ञापन देखकर उसी वस्तु को खरीदने की जिद करने लगते हैं। विवश माता- पिता वह वस्तु लेने को बेबस हो जाते हैं। टीवी में तो कार्यक्रम कम और विज्ञापन अधिक ही दिखाई देता है शायद इसीलिए हमें कविताएं कम और विज्ञापन ज्यादा याद होने लगते हैं। चर्चित हस्तियों को लेकर विज्ञापन दिखाए जाते हैं जिससे बच्चे ही नहीं बड़े भी यही सोचते हैं कि मेरा पसंदीदा अभिनेता यदि इस ब्रांड की वस्तुएं खरीदता है या उपयोग में लेता है तो मैं भी यही वस्तु का उपयोग करूंगा।
मैं जानती हूं हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। फिर भी आधुनिक जीवन की इस यांत्रिक परिस्थितियों में विज्ञापन जरूरी हो गया है।
विज्ञापन युग की महिमा अपार, 
छोटे से बड़े तक सबको दिया तार।