बुधवार, 28 दिसंबर 2022

चांद जरा सा घटता रहा

चांद जरा सा घटता रहा

 

चांद जरा सा घटता रहा ,

अपना सफर तय करता रहा।

रात के अंधेरों में,

अपनी चांदनी के साथ,

बेफिक्र होकर बिखरता रहा।

चांद जरा सा घटता रहा।

चांद जरा सा घटता रहा,

हर पल अपना कर्म करता रहा।

दुनिया को हरदम,

अपने साथ,

मुस्कुराने की प्रेरणा देता रहा।

चांद जरा सा घटता रहा।

चांद जरा सा घटता रहा,

जीवन का अर्थ समझाता रहा।

उसे पता है,

एक दिन पूर्णिमा जरूर आएगी,

तब वह अपनी पूर्णता को पाएगा,

फिर आज वह फिक्र क्यों करें ?

अपने घटने के गम में क्यों मरे ?

चांद जरा सा घटता रहा ।

             राजेश्री गुप्ता

               २८/१२/२०२२


 

 

सोमवार, 26 दिसंबर 2022

संस्मरण

        संस्मरण लेखन 

      नोट्स

       राजेश्री गुप्ता

बात उन दिनों की है जब मैं कॉलेज में प्रथम वर्ष में थी। स्कूल छूटा स्कूल के दोस्त भी छुटे। अब नया परिवेश, नया वातावरण, नए शिक्षक और नए संगीसाथी। क्योंकि जल्दी से दोस्ती करने की मेरी आदत भी नहीं और थोड़ा अंतर्मुखी व्यक्तित्व होने के कारण मेरा उस कॉलेज में कोई मित्र भी नहीं था। कुछ महीने यूं ही बीत गए। धीरे-धीरे अब अपनी कक्षा में कुछ चेहरों से मैं परिचित होती चली गई। उनमें से एक तो मेरे साथ मेरे बेंच पर ही बैठती थी। धीरे-धीरे जान-पहचान बढ़ी और हममें मित्रता का भाव अपनी जड़े जमाने लगा। कॉलेज की कक्षाएं अटेंड करना फिर कैंटीन में साथ में लंच लेना, हमारा दैनिक कार्यक्रम था।

  बचपन से ही पढ़ाई को लेकर मैं ज्यादा संजीदा थी। अतः कॉलेज छूटने के बाद अक्सर लाइब्रेरी में एक घंटा बिताना मेरी आदत थी।

         रोज जो पढ़ाया जाता, उसे पढ़ना। उस पर नोट्स बनाना। यह सब पढ़ाई के साथ-साथ मैं रोज करती इसलिए जितना पढ़ाया जाता, उसके नोट्स मेरे पास तैयार रहते ।

       धीरे-धीरे परीक्षा का दौर भी आ पहुंचा। मेरी बगल में बैठने वाली मेरी सखी ने बताया कि उसने अभी तक तो कुछ भी तैयारी नहीं की है और वह मुझसे मेरे नोट्स मांगने लगी। मैंने भी मित्रता का धर्म निभाते हुए, अपने नोट्स उसके हवाले किए।

         कल आ कर देती हूं, ऐसा बोलकर, वह मेरे नोट्स ले गई। और उसके बाद कई दिनों तक वह कॉलेज में नहीं आई। मेरा दिल, हर दिन बैठा जाता था। अब नोट्स नहीं तो मैं कैसे पढ़ूंगी ? यह यक्ष प्रश्न मेरे सामने उपस्थित था। घबराहट के मारे नींद आंखों से कोसों दूर थी। परीक्षा के दिन समीप आ रहे थे। मेरी दोस्त का कुछ अता पता नहीं था। मैंने ना तो उसका फोन नंबर लिया था और ना ही मुझे पता था कि वह कहां रहती है ? अतः मेरा उससे संपर्क भी नहीं हो सकता था।

          अब केवल ईश्वर का ही सहारा था। मैं रोज ईश्वर से मनाती की वह कॉलेज आ जाए, पर हर दिन उसका चेहरा कॉलेज में, कक्षा में दिखाई ही नहीं देता था। गुस्सा, बेचैनी, परेशानी दिन पर दिन बढ़ रही थी कि अचानक एक दिन परीक्षा से ठीक 2 दिन पहले वह मेरे घर पर आई मेरे नोट्स लेकर। 

               उसे देखकर मेरी आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बहने लगी। इतने दिन का गुस्सा, बेचैनी सब एक साथ जैसे फूट पड़े हो।

             घर आकर ही उसने मुझे बताया कि उसके पिता की ट्रेन से गिरकर मृत्यु हो गई थी इस वजह से वह कॉलेज नहीं आ पाई।

               पिता के चले जाने का गम बहुत बड़ा था। उसके आगे मेरे नोट्स का उसके पास रह जाना मुझे बहुत छोटा मालूम हुआ।

            पर इतना बड़ा दुख झेलने पर भी, उसे मेरे नोट्स का ख्याल रहा। वह मुझे खोजती हुई, मेरे घर तक पहुंची थी। यह बहुत बड़ी बात थी।

             कई बार कितनी ही बातों से हम बेखबर रहते हैं और अपने दुख को बहुत बड़ा और बहुत बड़ा समझते हैं। पर जब वास्तविकता हमारे सामने आती है तो हमें अपना दुख कितना छोटा जान पड़ता है।

                 आज वह मेरी सखी, मेरे जीवन की सबसे अभिन्न दोस्त बन गई है। हमारे बीच हुई यह घटना मुझे हर पल याद दिलाती है कि किसी के बारे में बिना जाने अपनी राय नहीं बना लेनी चाहिए। हमें नहीं मालूम कि अगला व्यक्ति क्या झेल रहा है ?

             

 

गुरुवार, 6 अक्तूबर 2022

भाषा एक वरदान Bhasha ek vardan

भाषा एक वरदान (Bhasha ek vardan)

चिंतन करना मनुष्य का काम है। 
मनुष्य एक विचारशील प्राणी है वह सुनकर एवं पढ़कर दूसरों के विचारों को ग्रहण करता है तथा बोलकर एवं लिखकर अपने विचारों को व्यक्त करता है अपने विचारों को प्रकट करने और दूसरों के विचारों को ग्रहण करने के लिए हमें भाषा की आवश्यकता पड़ती है।
भाषा (bhasha)शब्द संस्कृत की 'भाष' धातु से बना है जिसका अर्थ है बोलना या कहना।
विचार और भाव विनिमय के साधन के लिखित रूप को हम वस्तुतः भाषा कहते हैं।
भाषा (bhasha )शब्द का प्रयोग बहुत ही व्यापक अर्थ में होता है हम मनुष्य अन्य भावों को कभी-कभार ध्वन्यात्मक भाषा न होने पर भी संकेतों द्वारा ही समझ लेते हैं। ऐसी दशा में भाषा अभिव्यक्ति के समस्त साधन भाषा के व्यापक अर्थ में सम्मिलित हो जाते हैं। हम ऐसा कह सकते हैं कि भाषा एक सामाजिक प्रक्रिया है ।वह बोलने और सुनने दोनों के विचार विनिमय का साधन है।
जिस वक्त भाषा का वर्तमान रूप निर्मित हुआ था उस समय मानव संकेतों के माध्यम से अपना काम चलाता होगा। आज भी कई व्यक्ति जो बोल, सुन या देख नहीं सकते संकेतों के द्वारा ही अपना काम चलाते हैं। जैसे-जैसे मानव शक्तियों का विकास होता गया वैसे वैसे भाषा का भी विकास होता गया।
भाषा से सुलभ हुए, सुलभ हुए सब काम।
भाषा हमेशा बदलती रहती है। भाषा का कोई रूप स्थिर या अंतिम रूप नहीं होता। भाषा में यह परिवर्तन ध्वनि, शब्द, वाक्य ,अर्थ सभी स्तरों पर होता है। तो हम कह सकते हैं कि भाषा का विकास हमेशा होता आया है।
भाषा अभिव्यक्ति का सर्वाधिक विश्वसनीय साधन है। यही नहीं इसके द्वारा समाज का निर्माण, विकास, सामाजिक व सांस्कृतिक पहचान आदि भी होता आया है।
भाषा नहीं तो मनुष्य नहीं ।भाषा के द्वारा ही मनुष्य अपनी परंपराओं से, इतिहास से जुड़ा हुआ है। 
पूरे विश्व में हमारा भारत देश अपनी संस्कृति और सभ्यता के लिए पहचाना जाता है। यह पहचान हमें हमारी भाषा के कारण ही मिली है।
भाषा उन्नति अहै ,सब उन्नति को मूल।
हमारी भाषा हमें पीढ़ियों से जोड़ती है। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी भाषा के कारण ही प्रगाढ़ता से एकाकार हो पाती है।
हिंदी हमारी राजभाषा है। इसका सम्मान हम सभी को करना चाहिए।
जिस व्यक्ति को है नहीं ,निज भाषा का सम्मान। बहुत सुकर सा डोलता, धरे शरीर में प्राण।
हिंदी भाषा दुनिया की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। हिंदी सिनेमा ने हिंदी भाषा को एक अलग और नई पहचान दी है। वर्तमान में सोशल मीडिया पर हिंदी का बढ़ता दबदबा हम सभी महसूस कर सकते हैं।
भाषा के बिना लिखित साहित्य हो ही नहीं सकता।  हमारे वेद, उपनिषद, ग्रंथ आदि लिपि के कारण ही सुरक्षित रह सके हैं। प्रत्येक भाषा की अपनी लिपि होती है। हिंदी, मराठी, नेपाली, संस्कृत आदि की लिपि देवनागरी है। उर्दू की लिपि फारसी तथा अंग्रेजी की रोमन लिपि है।
भाषा संरक्षण के साथ - साथ पथ प्रदर्शक होती है। इसके द्वारा सूचना का आदान - प्रदान और मानव मन की भावनाओं गहरी अनुभूतियों को भाषा द्वारा ही समझ सकते हैं । इस प्रकार भाषा से हमारा अटूट संबंध है। भाषा ईश्वर का दिया सबसे अनमोल रत्न है। भाषा के बिना सब अधूरा है। भाषा की ताकत नहीं तो ज्ञान संभव नहीं है ।इसके बिना पथ - पथ पर कठिनाइयां है । हम पत्र, पत्रिकाएं, सूचनाएं नहीं पढ़ सकते। दुनिया का हाल नहीं जान सकते ।भाषा के ज्ञान के बदौलत ही हम दुनिया से संपर्क बना सकते हैं। इसके बिना जीवन असफल प्रतीत होता है।
भाषा ही हमें गांव - शहर ,देश-विदेश से जोड़े हुए हैं जो सभी तरह से लाभकारी है और हमारे लिए ईश्वर का दिया हुआ वरदान ही नहीं अभय वरदान है।

बुधवार, 21 सितंबर 2022

शहरी जीवन

शहरी जीवन shahri jivan
चंदन है इस देश की माटी,
तपोभूमि सब ग्राम है।
कहते हैं - भारत गांवों में निवास करता है। गांव इस देश की रीढ़ की हड्डी है और देश की खुशहाली हमारे गांवों की मुस्कुराहट पर निर्भर है। बेशक यह बात शत - प्रतिशत सच है, परंतु फिर भी गांव के लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं । वे अपने गांव छोड़कर  शहरों के आकर्षण की ओर खींचे जा रहे हैं।
हां हां ! भारत दुर्दशा न देखी जाय।
   गांवों की शुद्ध अबोहवा शहरी लोगों को सदैव आकर्षित करती रहती है, क्योंकि शहरों में बस, ट्रक, कार, दुपहियों और  तिपहियों की इतनी भरमार है कि यहां का वायुमंडल अत्प्रयधिक प्रदूषित हो गया है।
शहरों में वायु - प्रदूषण के अलावा ध्वनि प्रदूषण भी अत्यधिक है। इसके अतिरिक्त जल - प्रदूषण भी है। गंदा पानी पीने के कारण शहर के अधिकांश लोग जल - जनित बीमारियों - बुखार, हैजा, दस्त, उल्टी आदि से हमेशा त्रस्त रहते हैं ।ध्वनि - प्रदूषण से शहरों में अधिकांश लोग बहरे हो गए हैं या कम सुनने लगे हैं और वायु प्रदूषण से लोगों को श्वास  संबंधी बीमारियां हो गई है। ये सभी बीमारियां इन शहरों की भी देन है। फिर भी शहर में रहने का अपना आकर्षण बना हुआ है।
आज का शहर विचित्र, नवीन,
धड़कता है हर पल,
चाहे रात हो या दिन।
शहरी जीवन प्रदूषण से बेहाल है। इसके बावजूद यहां की चमक दमक लोगों को अपनी ओर खींच रही है। यहां जीवन उपयोगी हर वस्तु सहज उपलब्ध हो जाती है। इसके अतिरिक्त शहरों में रोजगार के अवसर अधिक है इसलिए शहरों का अपना अलग ही आकर्षण है हालांकि यहां पर लोग गांव की तरह प्रेम और मेलजोल से नहीं रहते।
लोग संगमरमर हुए, ह्रदय हुए इस्पात ।
बर्फ हुई संवेदना , खत्म हुई सब बात।
जिस प्रकार गांव में लोग एक दूसरे की मदद के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। प्रतिदिन सुबह-शाम वे चौपाल पर एक दूसरे के हाल-चाल अवश्य पूछते हैं। लेकिन शहरों में तो अधिकांशतः लोग अपने पड़ोसी का नाम तक नहीं जानते , सिर्फ अपने मतलब से मतलब रखते हैं। ऐसा प्रतीत होता है , जैसे सभी अपनी अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए रह रहे हो।
जहां भी जाता हूं , वीराना नजर आता है ।
खून में डूबा हर, मैदान नजर आता है।
हालांकि केंद्र सरकार गांव के उत्थान के लिए वहां पर हर प्रकार की सहूलियत और साधन उपलब्ध कराने के प्रयास कर रही है, ताकि ग्रामीण लोग शहरों की तरफ पलायन न करें ।परंतु विकास की दर इतनी धीमी है कि अभी गांव में शहरों जैसा विकास होने में बीसियों वर्ष लग जाएंगे।
शहरों में लोगों के पलायन से शहरों की दशा अत्यंत खराब हो गई है। जिनमें दिल्ली शहर मुख्य है। यहां जनसंख्या अत्यधिक होने से ट्रैफिक, प्रदूषण , बीमारियां आदि बहुत बढ़ रही है। इससे पहले कि यहां हालात विस्फोटक हो जाए, सरकार को कुछ करना होगा। 
यह है शहरी जीवन की दशा अथवा दुनिया जिसे समय रहते सुधारना होगा ।
जलते दीपक के प्रकाश में 
अपना जीवन तिमिर हटाए 
उसकी ज्योतिर्मयी किरणों से 
अपने मन में ज्योति जगाएं।
                                  राजेश्री गुप्ता 

शनिवार, 1 मई 2021

बहार आएगी

बहार आएगी,

ए सखी, बहार आएगी।

काली, कुपित निशा,

एक दिन तो ढल जाएगी।

रवि का आगमन तो

अटल सत्य है।

फिर भय, पीड़ा, और उलझन से

क्यों त्रस्त है तू ?

पतझड़ जीवन का हिस्सा है,

जीवन नहीं।

वसंत को तो आना है,

प्रकृति को हंसाना है।

चहुं ओर खुशियां फैलाना है।

फिर शोक, संतृप्त, और दुखी

क्यों है तू ?


माना काले बादल छाए हैं,

तिमिर तांडव मचाए हैं।

पर उजाला तो विजीत होगा

आज नहीं तो कल होगा।

फिर सब्र, शांत और धैर्य के बंधन में

क्यों न है तू ?

सच मान

प्रकृति को जान

प्रकृति हरदम बदलती है,

हर क्षण कहां एक सी रहती है।

यह घोर निराशा, त्रासदी और तकलीफों

का चक्र भी बदलेगा।

सच सखी,

बहार आएगी।

फूल खिलेंगे, उपवन महकेंगे

आशा और विश्वास को मत खोना

यही तुम्हें संबल देंगे

बहारों से तुम्हें मिलने देंगे

बहारों से तुम्हें मिलने देंगे।

                         राजेश्री गुप्ता

 

 

 

 

बुधवार, 4 नवंबर 2020

श्रम का महत्व

                        श्रम का महत्व
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा,
जो जस करहिं तो तस फल चाखा।
यह संसार वास्तव में एक कर्मभूमि है। भगवान कृष्ण ने भी भगवत गीता में 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' कहकर कर्म करने का संदेश दिया है।
प्रकृति भी हमें कर्म करने की प्रेरणा देती है। धरती,सूरज, तारे, नक्षत्र सभी निरंतर गतिशील है। पवन निरंतर बहती है। नदिया सतत प्रवाहित होती रहती है।
प्रकृति में प्रत्येक तत्व को जीवन के लिए निरंतर संघर्ष करना पड़ता है। नन्हीं सी चींटी भी परिश्रम करके भोजन का भंडार जमा कर लेती है। शेर के मुख में भी पशु स्वयं प्रवेश नहीं कर पाते, उसे परिश्रम करके अपना शिकार ढूंढना पड़ता है।
श्रम से ही जीवन की गाड़ी चलती है। किसान के श्रम से ही सब का पेट भरता है। मजदूरों के श्रम से ही कल - कारखाने चलते हैं। चालकों के श्रम से ही वाहन चलते हैं। अस्पतालों में डॉक्टर और नर्सों का परिश्रम ही मरीजों को नया जीवन देता है। विद्यार्थी भी श्रम करके ही विद्या और योग्यता प्राप्त करते हैं।  श्रम में लीन रहकर ही वैज्ञानिक नए-नए आविष्कार करते हैं।
श्रम के बल पर ही विज्ञान ने मनुष्य को चांद पर पहुंचाया है। सभ्यता और संस्कृति का विकास श्रम के बल पर ही संभव हुआ है। अमेरिका, रूस,जापान जैसे देश अपने परिश्रम के कारण ही विश्व में सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर सके हैं।
वाल्मीकि, वेदव्यास, कालिदास, पाणिनी आदि भी बौद्धिक श्रम से ही महान ग्रंथकार बन सके।पंडित जवाहरलाल नेहरू, श्री लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी जैसे कई नेता अपने श्रम के कारण ही देश के प्रधानमंत्री बन सके। आइंस्टाइन ने श्रम किया और वे विश्व के सबसे महान वैज्ञानिक बन गए। किसी ने सच ही कहा है - "बिना मेहनत के सिर्फ झाड़ियां ही उगती है। "
कल्पना से ही सब कार्य सिद्ध नहीं हो जाते। उसके लिए हमें श्रम करना पड़ता है।अत: श्रम का मानव जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। श्रम से ही हमें धन और यश की प्राप्ति होती है। श्रम से ही शारीरिक, मानसिक और आत्मिक विकास होता है। दिन रात मेहनत करने वाले व्यक्ति के स्वास्थ्य और सौंदर्य की वृद्धि होती है।वह निरोगी होकर दीर्घायु को प्राप्त करता है। परिश्रमी व्यक्ति अपने कर्म में लीन रहकर शांति अनुभव करता है। उसमें आत्म संतोष, आत्मवश्वास और आत्मनिर्भरता के गुणों का विकास होता है। जिससे हीनता की भावना समाप्त हो जाती है और वह आत्म गौरव अनुभव करता है।
हर 2 मिनट की शोहरत के पीछे आठ-दस घंटे की कड़ी मेहनत होती है।
धन जीवन की सबसे बड़ी आवश्यकता है। वह धन भी शारीरिक एवं बौद्धिक श्रम से ही प्राप्त किया जा सकता है।
मनुष्य अपने भाग्य का विधाता स्वयं है। परिश्रम के बल पर ही वह महान से महान लक्ष्य को प्राप्त करके महानता के पथ पर अग्रसर होता चला जाता है। आलसी व कर्म हीन व्यक्ति भाग्य के सहारे बैठा देव- देव पुकारा करता है।
सकल पदारथ है जग माही,
कर्म हीन नर पावत नाही
यह दुख की बात है कि हमारी वर्तमान शिक्षा नीति हमें श्रम से दूर ले जा रही है। आज का युवा वर्ग कम से कम श्रम करके अधिक से अधिक धन कमाना चाहता है। कई बार इसके लिए वह गलत रास्ते भी अख्तियार कर लेता है। जो सचमुच ही हमारे लिए चिंता का विषय है। आज सभी को यह समझने की जरूरत है कि परिश्रम वह चाबी है ,जो किस्मत के दरवाजे खोल देती है। इसलिए परिश्रम करने कीी आवश्यकता है।
परिश्रम वह पारस मणि है, जिसके स्पर्श से लोहा भी सोना बन जाता है।
जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता पूरे जन्म के श्रम द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। इससे कम मूल्य पर इसे खरीदा नहीं जा सकता। जीवन में सफलता के फूल श्रम के पौधे पर ही खिलते हैं।
उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः। न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः।।
                                           राजेश्री गुप्ता

  

मंगलवार, 3 नवंबर 2020

पेड़

पेड़
आज इस वृक्ष के नीचे बैठकर यह खयाल आया
आज इस वृक्ष के नीचे बैठकर यह ख्याल आया
मेरे पूर्वजों ने इसे न लगाया होता
तो क्या होता ?
इस पेड़ की ठंडी छाया मुझे नहीं मिलती
इस पेड़ के मीठे फल मुझे नहीं मिलते
इस पेड़ से जो अपनापन है
वह मेरे पूर्वजों का आशीर्वाद है
यह पेड़ स्नेह, प्रेम, प्यार से
महकता है
चहकता है
इसको देख कर मैं भी
खुश होती हूं
सोचती हूं
मैं भी एक पेड़ लगाऊंगी
शायद मेरी आगे आनेवाली
कई पीढ़ियां
ऐसा ही लगाव
ऐसा ही अपनापन
पेड़ से महसूस करे
और तब शायद
आज का यह अपनापन
मेरे मन में
पेड़ के प्रति अपनत्व को
दूना कर देता है।
                         राजेश्री गुप्ता